Wednesday 1 April 2015

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों
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दिल को ज़ख़्मी ही जो करना था तो आये क्यूँ थे
हमको ऐ दोस्त तमाशा सा बनाये क्यूँ थे
जब मुहब्बत की तुझे जंग नहीं लड़नी थी
ये अलम प्यार का ऐसे में उठाये क्यूँ थे
मेरी बरबादी में कुछ हाथ तुम्हारा जो न था
ये तो बताओ तो ज़रा मुँह को छुपाये क्यूँ थे
मेरे अरमानों को गर दिल में बसा रखा था
फिर यतीमों की तरह उनको सताए क्यूँ थे
आग इस दिल की बुझाने के लिए हो मसरूफ़
गर यही शौक था फिर आग लगाए क्यूँ थे
इतना 'ज़ीनत' को बता दे ज़रा मोहसिन मेरे
जुल्म इस तौर का मज़लूम पे ढाये क्यूँ थे
---डा. कमला सिंह 'ज़ीनत'

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