Wednesday 30 April 2014

हाइकू(मज़दूरी) 
-------------
बंधक मन
बिकता है यौवन 
मज़दूरी में 
--कमला सिंह 'ज़ीनत'



डूबती सांसे 
मरता बचपन 
मजदूरी में। 
कमला सिंह 'ज़ीनत'


बिकते जिस्म 
तङपती है रूह 
मजदूरी में।
कमला सिंह 'ज़ीनत'


तन पिंजर 
झूकती है कमर
मजदूरी में।
कमला सिंह 'ज़ीनत'


तेरे लफ़्ज़ों से बनी हूँ मैँ 
तेरी सांसों में पली हूँ मैं 
कहते हो शायरी जिसे 
तेरे प्यार में ढली हूँ मैं 
---कमला सिंह "ज़ीनत "
मैंने अक्सर तुम्हें देखा है गैरों के मुहब्बत में गुमसुम, 
मेरे हबीब अपनी यादों के साए से
मेरी रूह को रिहाई दे दे 
---कमला सिंह "ज़ीनत "
तेरे लफ़्ज़ों से बनी हूँ मैँ 
तेरी सांसों में पली हूँ मैं 
कहते हो शायरी जिसे 
तेरे प्यार में ढली हूँ मैँ 

 कमला सिंह 'ज़ीनत'
 हाइकू(मज़दूरी) 
-------------
बंधक मन
बिकता है यौवन 
मज़दूरी में 
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 29 April 2014

एक ग़ज़ल मेरी सोच ,मेरा नज़रिया
---------------------------------------
हर तरफ सिर्फ मारा मारी है
आग के लहजे में चिंगारी है

आज भी देते हैं मेहमाँ का पता
अब परिंदों में ही खुद्दारी है

कम ही किरदार से बड़े हैं लोग
हर बड़ा नाम तो अखबारी है 

रस्में उल्फत निभा रहे हैं लोग
दिल में एक सर्द जंग जारी है

फूल नश्तर में ढल गए हैं सभी
शाख़ पे काँटों की फुलवारी है

ये क़यामत नहीं तो क्या 'ज़ीनत'
जिस तरफ देखिये बमबारी है
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
---------इश्क --(नज़्म)
लफ्ज़ ये इश्क मोअत्त्बर है बहुत 
कोई चाहे तो कर नहीं सकता 
कोई चाहे तो इश्क होता नहीं 
सबकी किस्मत में इसका रंग नहीं 
सबके दामन में नूर इसका नहीं 
सबके लकीरों में ये नहीं लिखा 
इश्क अल्हड़ है,बावला है ये 
जिसको होता है,सो नहीं सकता 
रोना चाहे तो,रो नहीं सकता 
इश्क रब से हो तो,मूसा कर दे
इश्क रब से हो तो,ईसा कर दे
ऐशकरनी करे,किसी को इश्क
कोई बन जाती है मीरा पल में
लाख मंदिर में कोई सेवा करे
लाख मस्जिद में दे अज़ान कोई
लाख मेवा चढ़ाये ईश्वर को
लाख सजदे में गिर पड़े कोई
इश्क करने से हो नहीं सकता
इश्क का बीज बो नहीं सकता
जब कोई इश्क में खो जाता है
इश्क ही इश्क वो हो जाता है
इश्क ही इश्क वो हो जाता है
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरे पुस्तक की एक और ग़ज़ल 
-----------------------------------
सहन अपना बाँट दीजिये 
तल्ख़ियों को पाट दीजिये 

दूसरों को भी मिले सबक़ 
इक नया प्लॉट दीजिये 

लिख के पूरी अपनी ज़िंदगी 
डॉट डॉट डॉट दीजिये 

दौर अब नहीं रहा जनाब
भाईयों को डाँट दीजिये

उठ गए जो आपकी तरफ
उँगलियों को काट दीजिये

ज़िंदगी है फ़िल्म ये ज़ीनत
इक हसीन शॉट दीजिये
-------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 23 April 2014

क्यूँ मज़हबों की बात करते हो 
क्यूँ फासला दिन रात करते हो 
करो शुक्रिया उस उपरवाले का 
क्यूँ नफरतों की बरसात करते हो
-------कमला सिंह "ज़ीनत "
मेरी एक और ग़ज़ल हाज़िर है आप सबके लिए 
------------------------------------
लिख गए खुद को उसके पाने पर 
जैसे लिखा हो दाने दाने पर 

हो रहा बावला इधर से उधर 
पर रहा वो मेरे निशाने पर 

मेरी दौलत है ज़िंदगी की वो 
क्यूँ न हो सब्र उस ख़ज़ाने पर 

उसको अफ़सोस बहुत होता है
एक आँसू मेरे बहाने पर

ज़िंदगी होती है मायूस बहुत
एक और दिन मेरे घटाने पर

लोग ज़ीनत निगाह रखते हैं
मेरे बस एक मुस्कुराने पर
---------कमला सिंह 'ज़ीनत'
मौज़े दरिया करे शिकार मेरा ,या तो फिर वो शिकार हो जाये 
ये तो क़िस्मत की बात है यारों ,कश्ती डूबे ,की पार हो जाये 
-------कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरी पुस्तक 'एक बस्ती प्यार की ' ग़ज़ल संग्रह कि एक और ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों 
------------------------------------------------------------------------------
पूरे एहसास में ढल गए 
हम किसी खास में ढल गए 

बहते दरिया को छूते ही हम 
मुस्तकिल प्यास में ढल गए 

इतनी शिद्दत से चाहा के हम 
उसके ही सांस में ढल गए

रोज़ आँखों को उसकी कमी
उसकी ही आस में ढल गए

यूँ तो दुनिया बुलाती रही
और हम पास में ढल गए

वो गुजरता है ज़ीनत यह सुन
राह के घास में ढल गए
------कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरी अपनी सोच, जो लिखा मैंने 
----------------------------------------
प्रेम की भाषा प्रेम होनी चाहिए 
न हिन्दू न मुसलमान होना चाहिए 
धङकता है दिल एक सा जिस्म में 
प्यार अपना ईमान होना चाहिए 
---------कमला सिंह "ज़ीनत "
रेत की लकीर पुस्तक से एक ग़ज़ल और हाज़िर है दोस्तों 
-----------------------------------------------------------------
ज़मीं से शम्स कभी जो क़रीबतर होगा 
सुलगती धुप में जलता हुआ नगर होगा 

अलामतें जो क़यामत की शक्ल ले लेंगी 
ज़मीं को चाटता फिरता हुआ बसर होगा 

वह दिन भी आयेगा इक दिन ज़रूर आयेगा 
रहेगा न साया कोई और न शजर होगा 

लरज़-लरज़ के ज़मीं पर गिरेगी सारी उम्मीद
किसी दुआ में न हरग़िज़ कोई असर होगा

फ़िज़ा में ज़हर भरा होगा आग बरसेगी
लहूलुहान तड़पता हुआ समर होगा

वह जिसने 'ज़ीनत' दुनिया तेरी बसायी है
उसी की नज़र परिंदों का बालो-पर होगा
--------------------कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरी पुस्तक 'एक बस्ती प्यार की ' ग़ज़ल संग्रह कि एक और ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों
---------------------------------------------------------------------
दाग ही दाग दे गया है वह 
मुझमें एक आग दे गया है वह 

डंस रहा है मुझे मुसलसल जो 
ऐसा इक नाग दे गया है वह 

ज़हर इतना चढ़ा है तीखा सा 
मुंह तलक झाग दे गया है वह 

एक गिद्ध को बैठाकर काँधे पर
हाथ में काग दे गया है वह

काफिया तंग है तौबा तौबा
बेसुरे राग दे गया है वह

लिख तू ज़ीनत ग़ज़ल तो जानूं मैं
बाज़ी बेलाग दे गया है वह
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरी चौथी ग़ज़ल संग्रह * 'एहसास के परिंदे '* की एक ग़ज़ल पेश करती हूँ दोस्तों 
**********************************************************************
है क़सम तुम्हें हमारी मुस्कुरा दिया करो 
ऐसे मुझको जीत कर तुम हरा दिया करो 

मैं तुम्हारी तुम हमारे उम्र भर रहें सदा 
हाथ अपना प्यार से तुम बढ़ा दिया करो 

इश्क़ के मज़ार पर हाज़िरी तेरी हो गर 
फूल मेरे नाम का तुम चढ़ा दिया करो 

ढूंढती हूँ जब तुम्हें दिल बहुत उदास हो
इक रेदा सुकून कि तुम ओढ़ा दिया करो

जब बुझें बुझें से हों हसरतों के दीप सब
मुझको ऐसे हाल में तुम सदा दिया करो

'ज़ीनत'तेरे वास्ते हर घड़ी है मुंतज़िर
बाबे दिल की कुंडली बस हिला दिया करो
--------कमला सिंह 'ज़ीनत'
वक्त ने ज़िंदगी का पैमाना बता दिया 
खुशी और ग़म का माना बता दिया 
मिले हैं जो भी पल सुकुन के हमे
जिए कैसे "ज़ीनत" निभाना बता दिया
-----कमला सिंह "ज़ीनत"
आज किसकी ये याद आई है 
जिंदगी फिर से मुस्कुरायी है 
इस तरफ बेवफा सा मौसम है 
उस तरफ मखमली पुरवाई है 
--------कमला सिंह 'ज़ीनत'
----------------------------------------
प्रेम की भाषा प्रेम होनी चाहिए 
न हिन्दू न मुसलमान होना चाहिए 
धङकता है दिल एक सा जिस्म में 
प्यार अपना ईमान होना चाहिए 
---------कमला सिंह "ज़ीनत "
एक ख्याल 
***********
मैं हूँ तुम्हारी अमृता 
एक वो थी अमृता 
और 
एक मैं हूँ ,तुम्हारी अमृता 
इसी नाम से बुलाते हो न मुझे 
हर शेर में तुम्हारे 
झलकता है अक्स मेरा 
तुम्हारे होठों पे बनके तब्बसुम 
मचलती हूँ मैं 
हर रोज़ मेरे लिए 
एक फ़िक्र बुनते हो 
तुम्हारे इस शायरी और ग़ज़लों की 
कैनवास में 
मेरा रंगरूप बनाते हो तुम 
तुम्हारे खींची हुई लकीरों में 
मैं ही मैं दिखती हूँ 
भोर की सुब्ह 
से शब के आगोश तलक 
हर वक़्त मैं साथ होती हूँ 
तुम्हारी जीवन रेखा बन चुकी हूँ मैं 
विधाता ने तक़दीर की लकीरों में 
तुम्हारी अमृता को बनाया और 
तुमने शेर के हर श्रृंगार से 
सजा कर मुझे 
एक साधना बना डाला 
और खुद को साधक ………। 
तुम्हारे अलिफ़ से लेकर 
हमज़ा तक के सफर में 
सिर्फ मेरा ज़िक्र होता है 
एहसास दिलाता है की 
तुम्हारे गोशे गोशे में ,
तुम्हारी रगों में ,
तुम्हारे जिस्म के क़तरे क़तरे में ,
तुम्हारी अमृता बसती  है 
बेहद पाकीज़ा प्यार है तुम्हारा 
रूहानियत से  इश्क़ .......  
जैसे खुदा से किया हो 
मैं भी आज इस बात का  
इक़रार करती हूँ   …… 
मैंने भी तुम्हे अपना इमरोज़ ही माना है 
दूर ही सही लेकिन हमेशा 
साथ चलते हो मेरे 
एक छन भी अलग नहीं होती तुमसे 
साये की तरह साथ चलते हो मेरे 
हर बार आउंगी मैं 
किसी न किसी रूप में बनकर 
तुम्हारी 'अमृता '
हर  जीवन में।  
तुम्हारी 'अमृता बनना 
मेरे लिए फ़क्र की बात है और 
एक इतिहास भी बनेगा 
मेरे इमरोज़ हो तुम 
…और .... 
मैं तुम्हारी अमृता  
--कमला सिंह 'ज़ीनत'


Friday 11 April 2014

तू मेरी आदतों में शुमार हो गया  
जाने क्यूँ  ऐसी भूल कर बैठी मैं 
------कमला सिंह'ज़ीनत 

सलासिल मुहब्बत की कुछ यूँ पकड़ गयी 
सोचा रुख़सती जो तुझसे और जकड़ गयी
------------कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक सवाल तुमसे 
---------------------------
हर दिन सिर्फ एक ही शिकायतहै मेरी  
तुम बदल गए हो 
और तुम्हारा वही घिसा पिटा उत्तर 
नहीं तो ,मैं आदमी हूँ 
समाज से घिरा हुआ 
ज़िम्मेदारियों में फसा हुआ 
दोस्तों में उलझा हुआ 
हर तबके से जुड़ा हुआ
सबके दुःख ,सुख का साथी हूँ 
तुम नहीं समझती। 
हाँ.…  
मैं नहीं समझती 
तुम सबके कुछ न कुछ हो 
मेरे लिए क्या है ?
मेरी जगह सिर्फ दिल में ?
खानापूर्ति के लिए ?
तुम्हारा प्यार हूँ ?
सच में ?
खुद से पूछो 
और सोचो 
फिर उत्तर देना मुझे 
क्या हूँ … .... मैं 
सिर्फ ....... 
चंद  लम्हों का प्यार !!
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 10 April 2014

मेरी पुस्तक 'एक बस्ती प्यार की ' ग़ज़ल संग्रह कि एक और ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों 
------------------------------------------------------------------------
प्यारा है वो जान से ज्यादा 
बेहतर है इंसान से ज्यादा 

मुझसे जब भी दुरी हो तो 
होता है नुक्सान से ज्यादा 

उसकी है आवाज़ सुरीली 
तानसेन कि तान से ज्यादा 

मैंने उसको चाहा है जी
खुद के अपने प्राण से ज्यादा

आता है जब भी वो दिल में
शोर मचे तूफ़ान से ज्यादा

ज़ीनत उसको लिखना सोचा
क्या लिखती मैं ज्ञान से ज्यादा
------कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरा नजरिया 
----------------------
क्यूँ मज़हबों की बात करते हो 
क्यूँ  फासला दिन रात करते हो 
करो शुक्रिया उस उपरवाले का  
क्यूँ नफरतों की बरसात करते हो  
-------कमला सिंह 'ज़ीनत'
सच है शमशीर से हम दोस्ती नहीं करते 
यानि की तीर से हम दोस्ती नहीं करते 
खास होते हैं कुछ "ज़ीनत" के दोस्त 
बदनुमा भीङ से हम दोस्ती नहीं करते
........कमला सिंह "ज़ीनत "
नज़रों की हया कमाल बन गई 
खुद के वास्ते इक जाल बन गई 
जुनूँ की हद तक फैली ये गुफ्तगू 
जिंदगी फिर इक सवाल बन गई
----कमला सिंह "ज़ीनत "
मेरी ग़ज़ल संग्रह कि एक और ग़ज़ल 
हाज़िर है आपके खिदमत में 
--------------------------------
सारे सजदे अदा हो गए 
हम मुसल्सल दुआ हो गए 

उसकी रहमत के इक घूंट से 
हम मुकम्मल नशा हो गए 

शर्त रखते ही ऐसा हुआ 
सारे रिश्ते हवा हो गए

बेवफा उनके होने तलक
मुस्तकिल हम वफ़ा हो गए

मेरी राहत को आये थे वो
रफ्ता रफ्ता सजा हो गए

तेरे अरमान ज़ीनत कई
पल ही पल में अता हो गए
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक रिश्ता 
---------------
एक रिश्ता ऐसा भी 
मनुष्य के झूठे दंभ का 
जिसे वो हर वक़्त ओढ़े रहता है 
लिबास झूठ और,
दिखावे का,
जहाँ दूर दूर तक कोई
चिंगारी नहीं भी नहीं,
उन रिश्तों के एहसासों की 
जिससे दिल से रिश्ते जुड़े हैं।
दर्द की चुभन हो
जिसके हसने से सुकून हो
क्या कभी सोचा है ?
उस रिश्ते को ?
जिसने तुम्हारे जन्म से लेकर अब तक
सिर्फ खुशियां और दुआएं दी हैं
कभी कुछ नहीं चाहा सिवा
एक या दो बातों के
अपनापन और प्यार। .......
उसकी आँखों कि तड़प
बयां करती है
तुम्हारी बेरुखी,
झूठे आडम्बर,
तरसती हैं वो बाहें आज भी
तुम्हें एक बार अपनी
छाती से लगाने के लिए
तुम्हें दुआ से चूमने के लिए
क्या तुम समझ पाये ?

मुझे दर्द है उस चुभन की,
मुझे दुःख है तुम्हारी बेरुखी पर,
मुझे दुःख है अपने कोख पर,
मुझे दुःख है खुद पर,
क्यूंकि
मैं वो दीया हूँ जो बुझने वाली है
मैं वो दर्द हूँ जो तड़पती है
वो दयार हूँ जो फट चुकी हूँ
वो दरख्त हूँ जो सुख चुकी है
आखिरकार … …।
मैं भी एक
जीता जागता एहसास हूँ
एक माँ हूँ
तुम्हारे लिए दुआ हूँ
तुम्हारे लिए दुआ हूँ
सिर्फ प्यार और दुआ
----कमला सिंह 'ज़ीनत'(2 april 2014)
मेरी पुस्तक 'एक बस्ती प्यार की ' ग़ज़ल संग्रह कि एक और ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों
--------------------------------
इश्क में तेरे क्या हो गयी 
मुस्तकिल एक दुआ हो गयी 

इक चमन की मोहब्बत में मैं 
हाय बादे सबा हो गयी 

बनके तितली सी उड़ने लगी 
एक मोकम्मल हवा हो गयी 

मेरी खुशियों को यूँ देख कर
जिंदगी भी फ़िदा हो गयी

आज 'ज़ीनत' ग़ज़ल आपकी
सुर्ख रंग-ए-हीना हो गयी
------कमला सिंह 'ज़ीनत '
मेरी पुस्तक 'एक बस्ती प्यार की ' ग़ज़ल संग्रह कि एक और ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों 
------------------------------------------------------------------------------
पूरे एहसास में ढल गए 
हम किसी खास में ढल गए 

बहते दरिया को छूते ही हम 
मुस्तकिल प्यास में ढल गए 

इतनी शिद्दत से चाहा के हम 
उसके ही सांस में ढल गए

रोज़ आँखों को उसकी कमी
उसकी ही आस में ढल गए

यूँ तो दुनिया बुलाती रही
और हम पास में ढल गए

वो गुजरता है ज़ीनत यह सुन
राह के घास में ढल गए
------कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरी ग़ज़ल संग्रह 'रेत कि लक़ीर' की एक ग़ज़ल पेश है 
-----------------------------------------
आँधियों से है साबिक़ा मेरा 
सख्त मुश्किल है रास्ता मेरा 

रोज़ उजड़े हैं रोज़ बिखरे हैं 
आप सुनते हैं हादसा मेरा 

मेरी राहों में इक समुन्दर है 
कौन ऐसे में है सगा मेरा 

खोटी क़िस्मत तो ज़िंदगी छोटी
साथ मुश्किल है आपका मेरा

पा-बजौलाँ हूँ जानती हूँ चुभन
खारदारों से वास्ता मेरा

ज़ीनत जी ज़िंदगी का वह आँगन
संगे-दिल कौन बाँटता मेरा
------कमला सिंह ज़ीनत
कुछ फूल भी 
कुछ ख़ार भी 
ये ज़िंदगी के बहार भी 
पल में खट्टी 
पल में मीठी 
ज़िंदगी के ग़ुबार भी 
हँसा दिया कभी 
रुला दिया कभी 
ये ज़िंदगी के दुलार भी 
गले भी लगाया 
गले से हटाया
ये ज़िंदगी है खुमार भी
ये ज़िंदगी है प्यार भी
ये ज़िंदगी है बहार भी
....कमला सिंह "ज़ीनत "
प्रेम की भाषा प्रेम होनी चाहिए 
न हिन्दू न मुसलमान होना चाहिए 
धङकता है दिल एक सा जिस्म में 
प्यार अपना ईमान होना चाहिए 
---------कमला सिंह "ज़ीनत "

Monday 7 April 2014

उलझनो से लिपटी रहती है हर वक़्त ये साँसें मेरी 
उलझनें रूह बन गयी हैं या रूह उलझनों का गुलशन 
---------कमला सिंह 'ज़ीनत'

पास अब कभी न आउंगी,दिल को भी यही समझाउंगी 
वो था कभी नहीं 'ज़ीनत' का,रोज़ ज़ख्मों को सहलाऊँगी 
----------कमला सिंह 'ज़ीनत'

आज बे-वफ़ा का ज़ख़्म भी सुकूं देता है 'ज़ीनत' को 
बरसों बाद बादल भी घुमड़े रहे  हैं इन बंज़र आँखों में 
------कमला सिंह 'ज़ीनत'  

Tuesday 1 April 2014

कितना दुःख दायी होता है दर्द संतान का
पश्चाताप होता है खु़द के मान सम्मान का
सोचती हूँ कुछ होता कुछ और है ज़माने में 
करता है बेटा अपमान जब माँ के अभिमान का
......कमला सिंह "जीनत "
एक रिश्ता ऐसा भी 
मनुष्य के झूठे दंभ का 
जिसे वो हर वक़्त ओढ़े रहता है 
लिबास झूठ और, 
दिखावे का
जहाँ दूर दूर तक कोई
चिंगारी नहीं भी नहीं 
उन रिश्तों के एहसासों की 
जिससे दिल से रिश्ते जुड़े हैं। 
दर्द की चुभन हो 
जिसके हसने से सुकून हो 
क्या कभी सोचा है ?
उस रिश्ते को ?
जिसने तुम्हारे जन्म से लेकर अब तक 
सिर्फ खुशियां और दुआएं दी हैं 
कभी कुछ नहीं चाहा सिवा 
एक या दो बातों के 
अपनापन और प्यार। ....... 
उसकी आँखों कि तड़प 
बयां करती है 
तुम्हारी बेरुखी,
झूठे  आडम्बर,
तरसती हैं वो बाहें आज भी 
तुम्हें एक बार अपनी 
छाती से लगाने के लिए 
तुम्हें दुआ से चूमने के लिए 
क्या तुम समझ पाये ?

मुझे दर्द है उस चुभन की,
मुझे दुःख है तुम्हारी बेरुखी पर,
मुझे दुःख है अपने कोख पर,
मुझे दुःख है खुद पर,
क्यूंकि 
मैं वो दीया  हूँ जो बुझने वाली है  
मैं  वो दर्द हूँ जो तड़पती है  
वो दयार हूँ जो फट चुकी हूँ 
वो दरख्त हूँ जो सुख चुकी है
आखिरकार  … …। 
मैं भी एक 
जीता जागता एहसास हूँ 
एक माँ हूँ 
तुम्हारे लिए दुआ हूँ 
तुम्हारे  लिए दुआ हूँ 
सिर्फ प्यार और दुआ  
------कमला सिंह 'ज़ीनत' 2 april 2014