Wednesday 30 July 2014

मुक्तक

चाँद   कह  के   तुझे  पुकारुँगी
तुझको हर शब यूँही  गुजा़रुँगी
माँग कर एक दिन खुदा से तुझे
दिल  के इस झील में  उतारुँगी
-----------कमला सिंह 'ज़ीनत'

मुक्तक

आप जब जब मुझे  याद  आते  रहे
हम ग़ज़ल अपनी  ही  गुनगुनाते रहे
एक पल खुद को तन्हा न होने दिया
याद     करते     रहे    मुस्कुराते रहे
---------------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday 28 July 2014

होकर आपने, क़द से बाहर, कोई धूल उडा़ता है
ऐसी सुरत, जब भी हो, तो होश मेरा खो जाता है
मेरे अंदर ज़ब्त बहुत है, सहने लायक सहती हूँ
उल्टी सीधी ही बातों पर, मुझको गुस्सा आता है

कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरा मानना है कि
हर घर के बाहर
एक मंदिर हो
हर घर के बाहर
एक मस्जिद हो
और हर घर के बाहर
एक गुरुद्वारा हो
गिरजा घर हो
और इसी तरह घर घर सब हो
उसके बाद
सब लोग अपने अपने पूजा स्थलों और
इबादतगाहों में लीन हो जाएँ
तो फिर ?
अन्न कौन उगाएगा
रेल कौन चलाएगा
बिजली कहाँ से आएगी
स्कूलों में कौन पढाएगा
देश कौन चलाऐगा
दवा कौन बनाएगा
लाश कौन उठाएगा
इसी तरह सब कुछ ठप हो जाएगा
ऐसी सूरत में सारा भूत भाग जाएगा

Sunday 27 July 2014

धन दौलत है पास हमारे ,कोई न ऐसी चाहत है 
तेरी इन बातों से लेकिन दिल मेरा भी आहत है 
ऐसा कोई पाप नहीं था,जिसकी मुझको सजा मिली 
आरोपों से उचट गया मन, अब तो कुछ नहीं भावत है 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
कहने को जो बात भी बोलो कहने में ही क्या जाए
बादल होना और मुक़द्दर सुरज पे भी छा जाए
मेरे रब की खा़स अता है शुक्र है मेरे मौला का
काग़ज़ का मैं फूल भी छू दूँ फूल में खुशबू आ जाए
--कमला सिंह 'ज़ीनत'
सुब्ह के इंतजा़र में हमने
रात भर रात को सोने न दिया
जि़ंदगी चाहती थी थोडा़ सुकून
हो तो जाता मगर होने न दिया

कमला सिंह 'ज़ीनत'
रुत हुए सुहाने देखिए ,अब गुलों की बात कीजिए 
खुश्बूओं में हो बसर सहर,खुश्बूओं में रात कीजिए
------कमला सिंह "ज़ीनत "
इतना तू शैख़ बस दुआ दे दे
मेरे होने का तू पता दे दे
तेज है धूप जिंदगी की बहुत
हो सके तो मुझे हवा दे दे
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 25 July 2014

कुछ वक़्त पहले औरतों के ऊपर जो टिप्पणी की गयी गयी उस पर कुछ लिखा था 
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चुल्हा फुकन में रही हम औरत की जात आंखन आँसू देख पुरुष,फूले नहीं समात समय बदलते देख ले ए मरदन की जात हम मिल के खा जायेंगे तुम सबकी औका़त
----कमला सिंह 'ज़ीनत
बे-हुनर हो तो सुनो,रहने दो परखा न करो बे-ख़बर होश नहीं हो, तो फिर बोला न करो तेरी उम्मीद की, चादर से ,बहुत तूल हू़ँ, मैं जब लकीरों में रकम न हो, तो दावा न करो --कमला सिंह जी़नत

Thursday 24 July 2014

वो अगर प्यास का मारा है और सहरायी है तो मेरा इश्क भी वह जान ले दरियायी है बस उसी एक की खातिर ही दुआ गो हूँ मैं यह दिले लुत्फे़ सनम अरजे़ तमन्नायी है --कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 22 July 2014

------------नज़म-साया मेरा-------------
(क)-कर्ज़ के बोझ सी ढोती हूँ बराबर उसको क्या ही एहसास दिये जाता है जा़लिम साया कैसा जि़द्दी है कि इक पल न जुदा होता है कारवाँ की तरह चलता है वो साया जि़द्दी (म)-मख़्मली कोई मुसाफि़र की तरह पल पल वो मेरे एससास के कदमों से चला करता है मानता ही नहीं रुकता भी नहीं इक पल को (ला)-लाख साये से निकलने की भी कोशिश की है लड़ता रहता है किसी बच्चे की सूरत मुझसे लड़खडा़ऊँ तो मुझे रोक लिया करता है लब हिला दूँ तो ईशारे से मना करता है (सिं)सिंदुरी शोख़ चटख़ रंग है उसमें शामिल सिहरी हर बात का अंदाज़ बदल देता है सिसकियाँ लू़ तो वह रो जाता है भर आँसू से (ह)-हमको रहने नहीं देता है अकेला पागल हमने हर जो़र लगा रक्खा है दूरी के लिये हमसे वह चिपका पडा़ रहता है चादर की तरह (जी़)-जी़नती खुशबू का पर'वाना फिरा करता है जीना चाहूँ तो खुशी उसको बहुत होती है जीना मेरा उसे लगता है जैसे आब ए हयात (न)-नब्ज़ चलती है मेरी उसकी इन्हीं बातों से नाज़ करता है वो बस मुझ पे इसी तेवर से नक्श कर देता है इस दिल पे अपने दस्तक को (त)-तल्खि़याँ उसको नहीं भीतीं हैं ग़मखि़ने की तख़्ता ए दिल पे वही बैठा है सुल्ताँ कि तरह ताजदारों सा वह अपना है पराया मेरा हर घडी़ साथ में चिपका है वह साया मेरा
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 20 July 2014

-----------------ग़ज़ल--------------------- मुस्कुराता हुआ मंज़र रख दे सामने मेरे समुंदर रख दे या तो खुशियाँ निबाह कर मुझसे या तो फिर ला कोई ख़ंजर रख दे ज़ख़्म बाहर से हो अगर बेहतर ज़हर कुछ ज़ख़्म के अंदर रख दे इश्क़ का आसमान है ऊँचा खौ़फ ए परवाज़ हो तो पर रख दे तुझको महबूब है मैं जानती हूँ अपने हिस्से में मालो ज़र रख दे छोड़ रहने दे यूँ ही जी़नत को राह में मेरे दो पहर रख दे कमला सिंह जी़नत

Thursday 17 July 2014

मुझे वह लिखना है
_____________मुझे वह लिखना है ।

सोचने और लिखने के बीच
एक खामोश एहसास भी पलता रहता है
चलता रहता है
अंदर ही अंदर 
आडी़ तिरछी लकीरों में
कविता की एक परत धुँधली सी
काश की उसे लिख पाती 
उस परत को उधेड़ पाती मैं कभी
नहीं कर पाती हूँ
उस तिलस्माती एहसास को
लिख पाने का साहस
ताला सा जडा़ है
वह ताला जिसकी चाभी तो है मेरे पास
पर खोल पाने का हुनर नहीं मुझमें
ज़बानी जमा-खर्च की बुनियाद पर खडी़
मेरी अपनी ही कविताएँ
नहीं भाती हैं मुझे
मुझे वह लिखना है
जो सोचने और लिखने के बीच
एहसास की लकीरों में चलता रहता है ।
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 16 July 2014

मेरी एक ग़ज़ल पेश है आपके सामने उम्मीद है पसंद आएगी 
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दर्दे  ग़म हम सुनाते नहीं 
आप का दिल दुखाते नहीं 

आँसुओं से कभी तर-ब-तर 
कोई चेहरा भी  लाते नहीं 

दिल बहल जाए जिससे मेरा 
आप  भी  मुस्कुराते  नहीं 

ढूँढ़ती  हूँ  जिसे  होश में 
बदनसीबी  है ,पाते नहीं 

चाहती हूँ  जिसे भूलना 
हादसे  वो भुलाते नहीं 

ग़म के मारे हैं 'ज़ीनत' बहुत 
बात सच है छुपाते नहीं 
-कमला सिंह 'ज़ीनत'
इश्क का कटोरा _____________ इश्क के कटोरे में तेरे प्यार की शरबत मैं रोज़ इस तडप के साथ पीती हू़ँ जैसे कि शिद्दत की गर्मी हो और मैं प्यासी रोजे़दार वह रोजे़दार जिसे सहरी तक नसीब न हो । कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday 14 July 2014

एक और ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों 
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जहाँ जाऊँ तेरी परछाईयाँ हैं 
कहूँ कैसे भला तन्हाईयाँ हैं 

ग़मों की धुप कब की जा चुकी 
मोसर्रत से भरी शहनाईयां हैं 

है सब्ज़ा दिल की बस्ती आज मेरी 
मेहरबां  हो चुकी पुरवाईयाँ हैं 

बहुत रौनक है घर में या खुदारा 
ख़ुशी में झूमती अँगनाईयाँ हैं 

ना जाने क्या हुआ है क्यों हुआ है 
हमीं को तोड़ती अंगड़ाईयाँ हैं 

उसे सोचूं न पल-पल मैं 'ज़ीनत' 
हमारी भी तो ये रुसवाईयाँ हैं 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 10 July 2014

मेरी पुस्तक की रेत की लकीर से एक ग़ज़ल हाज़िर है 
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आज की रात को ज़हर कर दे 
ज़िंदगी मेरी मुख़्तसर कर दे 

या तो मुझको तमाम कर खुद में 
या तो खुद को मेरी नज़र कर दे 

उम्र अपनी मेरी मोहब्बत में 
एक सजदे में तू बसर कर दे 

मैं तुझे चाहती हूँ ऐ ज़ालिम 
तू ज़माने को ये खबर कर दे 

नाम से तेरी जानी जाऊं मैं 
मुझपे बस इतनी सी मेहर कर दे 

कुछ न हो सकता हो 'ज़ीनत' के लिए 
आ मेरी पुतलियों को तर कर दे 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 9 July 2014

या सूरज निकलेगा ________________________ रोज़ ब रोज़ बगै़र रुके बढ रहा है मेरे वजूद का साया उस ओर यह जानते हुए भी दुनिया गोल है और लोट आना है फिर साया जनूनी है मेरा तलाश की लम्बी राह वहाँ कुछ तो होगा तमन्नाओं की गेसुओं को सुलझाता बढ रहा है रोज़ ब रोज़ मेरे जैसा ही मेरा साया मंजि़ल ए मकसूद को नज़र में समेटे थकान के शामियाने तानते हुए ठहराव का कोई सिरा नहीं दिखता जहाँ से दुनिया अपनी गोलाई समेटेगी कहा है उसके कानों में किसी ने अभी नया सूरज निकलेगा बेतरतीब साया बढ रहा है रोज़ ब रोज़ दास्तान ए किस्सा गो की कहानी बने हसरत का एहसासी टोकरा उठाए बे निशाँ सफर की ओर साथ मैं भी हूँ खामोश ,चुपचाप बिल्कुल चुपचाप कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 8 July 2014

मुझे ग़म का गुजारा दे गया वो
बहुत ही दर्द प्यारा दे गया वो
वह मुझको चाँद देना चाहता था
न जाने क्यूँ सितारा दे गया वो

कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday 7 July 2014

सिर्फ तुम ही तुम थे 
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जब जुल्म की आँधियों का हमला हुआ 
जब अंधेरा छाया था चारो ओर
जब दूर दूर तक कोई साया न था
जब हर तरफ छाई थी उदासी
जब मेरी रूह तडप रही थी
जब मेरी आवाज़ घुट रही थी
जब मुसीबत का पहाड़ मुझ पर टूटा था
जब हवा बदसूरत हो चुकी थी
जब बदल गया था मंज़र
जब आग बरसने वाला था
जब हो गयी थी मैं बदहवास
जब खो रहा था मेरा होश
जब काँप रही थी मैं
जब प्राण निकलने वाला था
सिर्फ तुम ही तुम थे
तुम ही तुम ।

कमला सिंह 'ज़ीनत'
कलेजे में अगर दुश्मन तुम्हारे साँप जब लोटे
समझ लेना कि मेरा कद तुम्हारे कद से आगे है 

कमला सिंह 'ज़ीनत'
जिन्हें आता है उडना वह उडानो पर ही रहते हैं 
जिन्हें उडना नहीं आता वही बस फडफडाते हैं 

कमला सिंह 'ज़ीनत'
वह आज भी 
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फुलों की वादियों के बीच से 
एक पगडंडी आज भी निकलती है
कल इसी पगडंडी से होते हुए 
पहाडी के उस पार गयी थी मैं 
सुन्दर ,मनमोहक ,सुगंधित 
ओह स्वर्ग 
हरी पीली पत्तियाँ 
रंग बिरंगे फूल
शांत वातावरण
शीतल जल
मीठे झरने
और उसकी बाँसुरी की तान
वह उँची डाली पर बैठा
मुस्काता था
अपने पैर हिलाता था
बाँसुरी बजाता था
मेरे लौटने से पहले तक
आज वर्षों बीत गये
वह आज भी मुस्काता  होगा शायद
बाँसुरी बजाता होगा शायद
शायद,शायद

कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday 5 July 2014

सिर्फ तुम ही तुम थे -------------- जब जुल्म की आँधियों का हमला हुआ जब अंधेरा छाया था चारो ओर जब दूर दूर तक कोई साया न था जब हर तरफ छाई थी उदासी जब मेरी रूह तडप रही थी जब मेरी आवाज़ घुट रही थी जब मुसीबत का पहाड़ मुझ पर टूटा था जब हवा बदसूरत हो चुकी थी जब बदल गया था मंज़र जब आग बरसने वाला था जब हो गयी थी मैं बदहवास जब खो रहा था मेरा होश जब काँप रही थी मैं जब प्राण निकलने वाला था सिर्फ तुम ही तुम थे तुम ही तुम । कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 4 July 2014

 मेरी पुस्तक 'रेत की लकीर' से एक ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तो 
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एक घायल से प्यार करती हूँ 
मैं तो पागल से प्यार करती हूँ 

संगेमरमर बदन है वो महबूब 
मिस्ले मख़मल से प्यार करती हूँ 

रोज़ फिरती हूँ मैं नागन की तरह 
शाख़े संदल से प्यार करती हूँ 

याद आता है वक़्त बनकर वो 
गुज़रे पल पल से प्यार करती हूँ 

डूब जाती हूँ उसकी चाहत में 
सच है दलदल से प्यार करती हूँ 

रुख़ पे पसरी थी जो 'ज़ीनत' उस दिन 
ऐसे काजल से प्यार करती हूँ 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
हाज़िर  है एक ग़ज़ल दोस्तों 
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दिल करता है प्यारा लिख दूँ तुझको मैं 
अपनी आँख का तारा लिख दूँ तुझको मैं
 
मेरे अंदर  तू   फिरता  है  सुब्हो  शाम 
ऐसे  में   बंजारा  लिख दूँ  तुझको  मैं 

लिख दूँ पूरी ज़िंद  को अपने कागज़ पर 
आखिरी लफ्ज़ पे यारा लिख दूँ तुझको मैं 

खुद को कश्ती कर दूंगी मैं देखना तुम 
पहले यार किनारा लिख दूँ तुझको मैं 

झील बनूँगी ,जम जाउंगी ,फ़िक्र न कर 
ऐ दिलदार शिकारा लिख दूँ तुझको मैं 

रुक सी गयी हूँ 'ज़ीनत' आगे क्या लिखना 
तू है   सिर्फ हमारा लिख दूँ तुझको मैं 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 3 July 2014

दो मिसरे 
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साँस लेकर ये उफ़ किया किसने 
चप्पा चप्पा गुलाब महका है 
--कमला सिंह 'ज़ीनत'
do misre
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sans lekar ye uff kiya kisne
chappa chappa gulab mahka hai
Kamla Singh 'zeenat'
ज़र्फ़ वालों में जो रहते हैं कम ही बोलते हैं
यूँ तो कमज़र्फ ही एलान का मेला लगाते हैं
------कमला सिंह 'ज़ीनत'
Zarf walon me jo rahte hain kam hi bolte hain yun to kamzarf hi elaan ka mela lagate hain --Kamla Singh' zeenat'
मेरी पसंद की एक और ग़ज़ल मेरी पुस्तक 'रेत की लकीर से '
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आज खुद को किताब करने दे 
ज़िंदगी का हिसाब करने दे 

उम्र गुज़री है पैचो-ख़म में बहुत 
खुद से खुद को ख़िताब करने दे 

रफ़्ता रफ़्ता चुना है मुश्किल से 
खुद को अब लाजवाब करने दे 

शाख़े हसरत पे जो हैं कुम्हलाए 
उन  गुलों  को  गुलाब करने दे 

वक़्त  के  साथ  फूट  जायेंगे 
ज़ख्मे  दिल है  हुआब करने दे 

यूँ तो 'ज़ीनत' नहीं मयस्सर वो 
फिर भी आँखों में ख़्वाब करने दे 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 1 July 2014

 प्यार की बस्ती पुस्तक से एक ग़ज़ल 
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जो लोग फ़िक्रे अदावत में पलते रहते हैं 
वही ज़माने से दिन रात जलते रहते हैं 

जो गिर चुके हैं ज़माने में अपनी नज़रों से 
वह अपने आप ही गिरते संभलते रहते हैं 

जो हांडियां हैं खबासत की मोख्तसर लेकिन 
वह बुलबुले की तरह से उबलते रहते हैं 

जिन्हें न शिकवा है ग़ैरों से फ़िक्र है अपनी 
वह अपनी धुन में सरे राह चलते रहते हैं 

हसद के साथ जो भरते हैं दोस्ती का दम 
वह दोस्ती में भी पहलु बदलते रहते हैं 

जो चाहते हैं की बन जाए हम 'ज़ीनत की तरह 
नसीब देखो की वह हाथ मलते रहते हैं 
------कमला सिंह 'ज़ीनत'
कांटे **** कांटों से उम्मीद हम नहीं करते जानते हैं हम उन्हें उनकी फितरत उनकी तासीर उनकी आदत चीरना,फाड़ना ज़ख्म देना पीढा पहुँचाना लहूलहान करना आह दर्द और सिसकन हाँ यह सच है काँटे उगते हैं उगाए नहीं जाते
--कमला सिंह 'ज़ीनत '
ज़िंदा लोगों की बस्ती में मेरा मकान है 
बसते है जहाँ मुर्दे वो एक शमशान है
 ---कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरे दिल की बात 
+++++++++++
मेरा अभिमान मेरा सम्मान है 
धरती और  खुला  आसमान है  
जिसे हो इन बातों की परवाह   
सच है,वही आदमी महान है 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'