Saturday 28 March 2015

एक शेर
ग़ज़ल लिखती हूँ मैं जिसमें अगर हो फिक्र न'दारद
तो ऐसी वैसी ग़ज़लों को अमूमन फाड़ देती हूँ
चार मिसरे
वो अपने पाप को चेहरे पे मलते रहते हैं
छुपे न पाप तो दुनिया से जलते रहते हैं
ज़माना हँसता है इनकी गुलाटियों के सबब
जो बंदरों से उचक कर उछलते रहते हैं
कहाँ तक साथ हो लम्बा सफ़र है
हकी़क़त से अभी तू बे-ख़बर है
तुम्हारे साथ तो सूरज का जादू
हमारे पास इक पानी का घर है
चार मिसरे
भूलकर भी कभी खु़शियों ने तो दस्तक न दिया
हाँ बला रोज़ ही ज़ंजीर हिला जाती है
कुछ दुआओं को मिलाकर मैं बनाती हूँ सुकून
कोई बद - रुह ये तस्वीर हिला जाती है
कमला सिंह जी़नत
चार मिसरे
दर्द जिसका हो वही जानता है
ज़ख़्म को ज़ख़्मी ही पहचानता है
मुझसे नफ़रत है जिसको खू़ब वही
जान से ज़्यादा मुझको मानता है

Monday 23 March 2015

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों 
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बुज़दिल थे जो परिंदे बलंदी से डर गए 
परवाज़े एख़्तेताम से पहले ही मर गए 

दिल में उतरने वाले की सूरत तो देखिये 
इतने थे जल्दबाज़ कि दिल से उतर  गए 

मैंने सफ़र शुरू किया तो हौसले के साथ 
हमराह कुछ बिछड़ गए कुछ अपने घर गए 

कश्ती हमारी देख के तूफ़ान उठ गया 
जितने भी नाखुदा थे किनारे ठहर गए 

मुश्किल थी ज़िंदगी मेरी राहें थी पुरख़्तर 
मंज़र तमाम राह के अश्कों में भर गए 

'ज़ीनत' किया था वादा तनावर दरख़्त ने 
सूरज के इम्तेहान से पहले उजड़ गए 
---डाक़म्ल सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 10 March 2015

दुआ
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तिल दुआ मेरी तूल तक पहुँची 
टूटे दिल से नजू़ल तक पहुँची 
जब तड़पती हुई दुआ रख दी
तब दुआ ये कबूल तक पहुँची
---डा.कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday 9 March 2015

देख के ऐसी , जादू नगरी , दुनिया हो जाए दंग
एक ही रंग में , खो जाएँ सब ,साधू और मलंग
न कोई हिन्दू,न कोई मुस्लिम,कोई सिख न ईसाई
ऐसा रंग चढे़ रंग - रंग पे , छुप जाए सब रंग


रंग बिखराओ होली आई,खुलकर ओ रंगरेज़
रंग चढे़ तो उतर न पाए , शोख़ रंग हो तेज़
खू़ब अमन हो ,खू़ब मिलन हो,झूमें नाचें लोग
इक - इक ज़र्रा , रंग में डूबे , हो हैरतअंगेज़
मेरी सखी , वह रंग लगा तू मन मोरा रंग जाए
तन भीगे , और मन न भीगे , ऐसा रंग न भाए
बरसाने की , ओह रे होली , जो देखे तर जाए
लठ की चोट को तरसे कोई,लठ कोई बरसाए
डा.कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक दुआ की गुज़ारिश आप सबसे दोस्तों
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जो ग़मज़दा हैं उन्हें न मलूल कर मौला
दुआएँ सुन ले दुआएँ न तूल कर मौला
तड़पते दिल को एनायत से अपनी राहत दे
दुआ को हाथ उठे हैं कुबूल कर मौला
-----डा.कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 3 March 2015

एक बात दिल की 
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दर्दों की ज़रदारी चादर 
ज़ख्मों की फुलदारी चादर 
कोर   कोर पे आहें थीं 
ऎसी थी उजियारी चादर 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday 2 March 2015

एक ग़ज़ल पेश है 
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क्या से क्या हो गया है ये संसार 
टूट  कर  बिखरे  हुए   हैं सब तार 

जिसको  देखो   वही  परीशाँ   है
जाने किस रोग से है सब बीमार 

कोई  खुश भी नहीं है दुनियां में 
ये क़यामत  का  है अजी आसार 

दिल  में नफरत का एक मेला है 
हर  कोई  कर रहा है खुद पे वार 

सच  को  तन्हा  ही  छोड़  देते हैं
झूठी  बातों  पे  लोग  हैं   तैयार  

लिखिए 'ज़ीनत' ग़ज़ल को परदे में 
ये  ज़माना  बहुत  ही  है  हुशियार 
---डा.कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 1 March 2015

तय मैं करुँगी
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इस रास्ते से गुज़रने वाला
हर साया
तुम सा ही लगता है
यह बात
मेरी आँखें कहती हैं
पर मैं नहीं मानती
बिना तुम्हें महसूस किये
अगर चापलूस आँखें मेरी
मुझे ना समझ भी कहती हैं
तो मंजू़र है मुझे
हर क़दम पर हर साये का
रंग और क़द बदलता है
यह आँखों को क्या पता
तभी तो हजा़र बीमारियाँ इन्हीं को हैं
तय मैं करुँगी
साये को देख कर ,महसूस कर