Saturday 15 April 2017

कहीं दरिया की मौजें और धारे हम हुए 
अगर सैलाब आए तो किनारे हम हुए 
अमावस की रेदा में चाँद जब परदा हुआ 
अंधेरे को मिटाकर तब सितारे हम हुए 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 9 April 2017

न्वान-मेरे पहलु से (नज़्म) मेरी पुस्तक 'एक अमृता और से )
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मेरे पहलु से न जाओ 
अभी रुक जाओ न 
बस ज़रा दम तो रुको 
कुछ ज़रा मेरी सुनो 
कुछ सिमट जाओ मेरी रूह के 
अंदर अंदर 
कुछ मेरे टाँके गिनों 
कुछ मेरी आह पढ़ो 
कुछ मेरे ज़ख्म पे मरहम के रखो फाहे तुम 
मेरे बिस्तर पर तड़पती हुई सलवट की क़सम 
चांदनी रात की बेचैन दुहाई तुझको 
मेरी बाहों के हिसारों के मचलते 'जुगनू'
आओ इमरोज़,लिखूं आज तेरे पंखों पर
आओ मुट्ठी में तेरी रौशनी भर लूँ सारे 
मेरे होठों पे तड़पते हुए सहरा की प्यास 
मुझको क्या हो गया ,ये बात चलो समझा दो 
अपनी यादों के मराहिल से मुझे बहला दो 
आज सूरज की तरह मुझपे ही ढल जाओ न 
मेरे पहलु से ना जाओ अभी रुक जाओ न !  

Saturday 8 April 2017

नज़्म (अमीर बना दो )
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सोने की नदी सा बहता है
ज़र्रा-ज़र्रा बटोर लेने की चाह में
हर रोज़ बैठती हूँ किनारे पर
चाहती हूँ छान लूँ तुम्हें तमाम
झीने आँचल को सुनहले पानी में डूबोकर
बैठी रहती हूँ मैं हर रोज़
सोना-सोना लिपट जाओ आँचल में मेरे
बना दो मुझे भी अमीर
एक चाल देखना और महसूसना चाहूंगी
अमीरी की चाल
सीना ताने निकलना है मुझे भी
दुनिया को बौना होता देखना है
मेरी हिम्मत बढ़ा दो
मेरी नींद उड़ा दो दो
मुझे अमीर बना दो
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 7 April 2017

एक ग़ज़ल हाज़िर है 
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जब  सितम  मेरे नाम आ गए 
ज़ख्मे  दिल  मेरे काम आ गए 

ख़ुश्क   होटों   ने  आवाज़  दी 
शैख़  खुद  लेके जाम  आ गए 

ज़ुल्म रावण का जब बढ़ गया 
काफिला  लेके  राम   आ  गए 

सुब्ह   देखी   नहीं   उम्र   भर 
आप  भी  लेके  शाम  आ गए 

बाद्शाहों   ने    की    साज़िशें 
हासिये   पे  गुलाम  आ   गए 

चलिए  'ज़ीनत'  करेँ   गुफ़्तगू 
आपके  हम  कलाम  आ  गए 

----कमला सिंह 'ज़ीनत' 

Wednesday 5 April 2017

कठिन है राह ये शाइस्तगी ज़रूरी है
जुनूने इश्क़ में पाकीज़गी ज़रूरी है
नज़र जो आये नज़र देखिये उसे जी भर
हर एक लम्हां मगर तिश्नगी ज़रूरी है
खुदा की ज़ात से या बंदगी किसी की हो
निभाना शर्त है वाबस्तगी ज़रूरी है
अंधेरा और बढ़ेगा यहाँ लम्हां-लम्हां
हर एक सिम्त अभी रौशनी ज़रूरी है
खुद अपनी ज़ात ही जब बोझ की सूरत लौटे
तो ऎसे हाल में फिर ख़ुदकुशी ज़रूरी है
कभी तो गमलों में पानी भी दिया कर 'ज़ीनत'
गुलों के वास्ते कुछ ताज़गी ज़रूरी है
----कमला सिंह 'ज़ीनत

Saturday 1 April 2017

ऐब कितना  तुम्हारा ढँकते हैं
हम  तेरी  चाह  में  भटकते हैं

तपते एहसास की पहाडी़ पर
मुर्दा  चट्टान  सा  चटख़ते हैं

धीरे  धीरे  पिघल  रहें  हैं  हम
जाने किस ओर को सरकते है

दर्द का इक खींचाव है  रुख़ पर
हम कहाँ अब कहीं भी हँसते हैं

कोई मौसम नहीं है इनके लिये
ये  अजब  आँख  हैं  बरसते हैं

ज़ख़्म भी  तो  रहम  नहीं करते
रात दिन ये भी तो  सिसकते हैं

सुनके जी़नत की बात ऐ साहिब
बोलिये  क्यूँ   भला  भड़कते  हैं

----कमला सिंह 'ज़ीनत'