Saturday 28 November 2015

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है मेरी पुस्तक  'रेत की लकीर' से  आप सबके  हवाले 
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जब  उसकी  चाह  में   अजी  बेदार  हो गए 
पढता  रहा  था  मुझको  वो अखबार हो गए 

दिन  रात  वो  हमारे  तसव्वुर  में था बसा 
हम   भी  उसी  के   शौक़  बीमार   हो  गए 

उसकी तरफ  जो  मौजें मिटाने को बढ़ चली 
कश्ती  में   ढल  गयी  कभी  पतवार हो  गए  

इतना  किया  था प्यार  की उसके ही वास्ते 
चाहत  के  हर मुकाम  पे  किरदार  हो  गए 

लब पर लिया था जोशे मुहब्बत में उसका नाम 
मक़तल  तमाम   साहिबे   तलवार  हो  गए 

मुंसिफ  ने  शर्त  रख  दिया सच  बोलना पड़ा 
दुनियाँ   के   रूबरू   सभी   इक़रार  हो   गए 

'ज़ीनत'   हमारे  नाम   पे  इल्ज़ामें  इश्क़ था 
पाकर  उसी   इनाम   को  सरशार   हो    गए 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 18 November 2015

देखना गौ़र से 
छोङ आई हूँ उसी कमरे में
उसी बिस्तर पर
सिरहाने के नीचे तकिये की ओट में
मीठी मीठी यादें 
तुम्हारे लिये
उन्हें संभाल कर रखना
धुंधली नीली रोशनी में बिखरे पडे़ होंगे
हमारे एहसास
बटोर लेना
मोगरे की खूशबू में पेवस्ता
रातरानी की महक
बेलगाम फैल रही होगी अभी तक
सम्भाल कर रखना
फिर मिलेंगे उसी नीली रोशनी तले
खूशबूदार एहसास के साथ।
___कमला सिंह "ज़ीनत "
अपनों जैसा प्यार मिले तो सचमुच अच्छा लगता है
इक सच्चा संसार मिले तो सचमुच अच्छा लगता है 
आह्लादित आधार मिले तो सचमुच अच्छा लगता है 
घर जैसा व्यवहार मिले तो सचमुच अच्छा लगता है 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
ऐ शह्र ए लखनऊ तेरे गुलशन में एक दिन
मुझको भी खिलके खूब महकना नसीब था
जी़नत अदब के शह्र में इक रोज़ ही सही
बुलबुल की नग़मगी में चहकना नसीब था
----कमला सिंह "ज़ीनत "

Friday 13 November 2015

सहारे की बैसाखी में
टूटने का निशान
गहरा रहा है अभी से
कल का भविष्य लिख रही हूं
टूटी बैसाखी 
और झुके कांधे का ब्लैक बुक
जब जब गर्दन उठाई
आसमान की ओर
देखने को अपना चाँद
खुदकी चाँदनी
रात अमावस 
चाँद काला हुआ
इन आँखों को
बे-मौसम
बरस जाने की आदत है
रोज़ बनाती रही
सीढियां 
सहारे की
सीढियां ढहती रही
बहती रही
किया है प्यार बेहिसाब तुझसे 
मांगा नहीं दूध का हिसाब तुझसे
सारी सीमाएँ लाँघ दी ममता में 
फिर भी न मिला सवाब तुझसे
--कमला सिंह "ज़ीनत"
इक दीया मुहब्बत का ऐसा भी जलाएं हम
जिसकी रोशनी फैले और मुस्कुराएं हम
फिर आई है दीवाली 
बहुत सारे दीपों के साथ ही
बेटी याद आई है
सोचती हूं खुद की तरह ही 
उस घर आंगन को
जहाँ दीवाली तो हो पर बेटी न हो
लाख दीप जले
पर कोई कोना खाली ही रह जाता है
रोशनी कोने कोने में फैले
और वह कोना घर का कहाँ है
बेटी ही जानती है
छुपा छिपाई के खेल खेल में
घर का हर अंधेरा कोना जानती है
दीप आज भी रोशन होंगे
पर वो कोना बेटी के बगैर
अंधकार में ही रहेगा
मैं नहीं जानती वह कोना घर का
पर बेटी जानती है।
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 8 November 2015

बडे ही फख्र की बात है हमारे लिए
कि हम एक औरत हैं
हम तहज़ीब हैं
हम एक सिलसिला हैं
हमारे ही नूर से यह जगमगाहट है
यह दुनिया हम बनाते हैं
आसमान को ईश्वर
तो धरती की खूबसूरती हमसे है
जब तक हम रहेंगे
यह धरती सूनी न रहेगी
जैसे ईश्वर जब तक रहेगा
यह सारा तामझाम रहेगा
धरती और आसमान रहेगा
मान रहेगा और सम्मान रहेगा

Thursday 5 November 2015

चले आते हो वक्त़ बे वक्त़
बिन बुलाए
इंकार भी नहीँ है मुझे
तुम्हारे आने पर
हां तुम्हारे आने पर मैं
तमाम शिकायतें
यादों की खूंटी से
बारी बारी उतारकर
तुम्हारे सामने रख देती हूँ
और तुम
तमाम शिकायतों की सलवटों को
प्यार की थपकियों से सहलाकर
मखमली बना देते हो
छिड़क देते हो अपने प्यार की खुशबू
और फिर
करीने से टांग जाते हो
तमाम शिकायतों को वहीँ का वहीँ
और मैं
महकती रहती हूँ अंदर अंदर
-----------कमला सिंह ज़ीनत
कुछ टूटे से पत्ते
कुछ झड़े से फूल
और दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ
याद आने के तेरे
बहुत सारे कारण हैं
लाखों की भीड़ और बेशुमार शोर में भी
याद रहते हो मुझे तुम
कल पड़ोस का कालबेल
आधी रात बजाया था किसी ने
नींद मेरी उचट गई थी
नज़रे ढूंढने निकल पड़ीं दरवाज़े तक
तुम नहीँ थे वहां
लौटी जब जब तुम्हें न पाकर ये नज़रें
आखों में उभरे थे अक्स तेरे होने के
हवाओं की सांय सांय में
तुम्हें ही बोलते सुना है
पानी की बूंद जब नलके से टपकती है
सिहरा देती है वो आवाज़
टप टप टप टप
बोलो लिख दूँ ?
तुम्हारा नाम शह्र के फसीलों पर।
बोलो लिख दूँ
हमें तुमसे बेपनाह मुहब्बत है ?
बस इसी तरह के सवालों से 
सहम जाते हो तुम हमेशा
उंची पहाडियों पर बोलो चढ जाऊँ ?
कर आऊं ऐलान अपनी मुहब्बत का ?
डर जाते हो तुम हर बार
कुछ कमी बाकी है तुम्हारे प्यार में
आना वहीँ मिलूंगी तुम्हें
जब कह सकने की हिम्मत जुटा लोगे
तुम्हें हमसे प्यार है
और यही तहरीर लिखते आना
हर गली ,हर नुक्कड ,हर चौराहे पर
मैं इसी आरज़ू में राह तकती
उसी हिम्मत वाले टीले पर
इंतज़ार करती मिलूंगी तुम्हें।
क्या है आखिरकार
हमारे और तुम्हारे बीच
आज यही एक सवाल फिर से
यह दिल पूछ रहा है
क्या जवाब दूं इसे 
तुम्हीं बता दो
ख्यालों में जब जब तुम आते हो
दिल को बिन बताए पता चल जाता है
अंदर की हलचल बाहर की खामोशी
और फिर आवारा दिल का पूछना
क्या है आखिरकार
तुम्हारे और हमारे बीच
दस्तक की एक आहट
सिहरा देती है दरो दीवार
सहम जाता है कोना कोना
बदलने लगता है मौसम
खिलने लगती हैं कलियां
झड़ने लगते हैं पराग
भंवरों की रूनझुन साफ सुनाई देती है
चहकने लगती हैं बुलबुलें
कुछ इस तरह आते हो तुम
बहुत सताते हो तुम
क्या हो तुम
क्या है तुम्हारे नाम का असर
जादूगर तो नहीं हो कोई
अचम्भित कर देते हो कभी कभी
लगातार पीसती रही मेहदी
हरी की हरी ही रही
तेरा नाम लिखते ही हथेली पर
सहम कर लाल हो गई है
देखो न