Wednesday 28 December 2016
Friday 23 December 2016
मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले
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आज की रात तू ज़हर कर दे
ज़िन्दगी मेरी मुख़्तसर कर दे
या तो मुझको तमाम कर खुद में
या तो खुद को मेरी नज़र कर दे
उम्र अपनी मेरी मुहब्बत में
एक सजदे में तू बसर कर दे
मैं तुझे चाहती हूँ ऐ ज़ालिम
तू ज़माने को ये खबर कर दे
नाम से तेरे जानी जाऊँ मैं
मुझपे बस इतनी सी मेहर कर दे
कुछ न हो सके तो 'ज़ीनत' के लिए
आ मेरी पुतलियों को तर कर दे
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
Thursday 22 December 2016
मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों आपके हवाले
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देखा है ज़िन्दगी को कुछ इतने करीब से
नफरत सी हो गयी है अब अपने नसीब से
जो भी मिला था टूट गया गिर के हाथ से
होते रहे हैं हादसे बिलकुल अजीब से
हँस कर सहे तमाम हर एक ज़ुल्म बार-बार
फिर भी मिले हैं ज़ख्म हज़ारों रक़ीब से
ज़ख़्मी हैं जिस्म सारे फ़फ़ोले हैं हर जगह
शिकवा नहीं है कोई भी अपने तबीब से
ऐ ज़िन्दगी बयान करूँ भी तो किस तरह
क्या-क्या मिली निशानियाँ दस्ते-हबीब से
'ज़ीनत' ग़ज़ल में ढाल दिया दर्द बेशुमार
लहजे की चाह रखती हैं गज़लें अदीब से
-----कमल सिंह 'ज़ीनत'
Wednesday 21 September 2016
आज फिर मेरी ग़ज़ल आप सबके हवाले
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न तख़्तों -ताज ,नशेमन न गुहार माँगेंगे
उठा के हाथ दुआओं में असर माँगेंगे
ख़िजाँ के साथ गुज़ारी है ज़िन्दगी अपनी
बहार आएगी तो हम भी समर माँगेंगे
अभी तो पाँव के नीचे ज़मीन ठहरी है
संभल तो जाने दे फिर,ख़ुद ही समर माँगेगे
मेरा ज़मीर अभी कह के मुझसे लौटा है
वतन पे आँच जो आएगी तो सर माँगेंगे
चमन उजड़ गए तामीर हो गए हैं शहर
परिंदे लौट के आएँगे तो ,घर माँगेगे
क़बूल 'ज़ीनत' गर 'तूर' की ज़्यारत हो
दबी ज़बान से 'मूसा' की नज़र माँगेंगे
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
Thursday 21 July 2016
ताक बाती दीया उसी का है सब
वह जलाये बुझाये मर्जी- ए -रब
वह जलाये बुझाये मर्जी- ए -रब
कमला सिंह 'ज़ीनत'
दो चार दिन ही बच गये मंजि़ल के हूं करीब
पीछे अब मुड़ के देखूं या आगे सफर करुं
पीछे अब मुड़ के देखूं या आगे सफर करुं
कमला सिंह 'ज़ीनत'
मसअला सामने है पेचीदा फैसला भी नहीं उतरता है
पीछे वाला पुकारता है मुझे आगे वाला इशारे करता है
पीछे वाला पुकारता है मुझे आगे वाला इशारे करता है
कमला सिंह 'ज़ीनत'
पर झुलसने की गर कहानी है
फिर तो परवाज़ आसमानी है
फिर तो परवाज़ आसमानी है
कमला सिंह 'जी़नत'
काफिर शुमार करके सही शैख मोहतरम
बुत मेरा मेरे साथ ही रखियो कफन तले
बुत मेरा मेरे साथ ही रखियो कफन तले
कमला सिंह 'जी़नत'
दो पल
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बस खेल तमाशा है
मेला है ये दो पल का
जीवन जिसे कहते हैं
खुद आग लगाये हम
चढ़ते हैं बलंदी पर
इक मौत का कुआं है
जिस कुऐं में इक दिन हम
इस मेले झमेले में
इस खेल तमाशे में
कल कूद ही जायेंगे
कल दूसरे आयेंगे
जो खेल दिखायेंगे
हम हाथ मले तन्हा
इस दुनिया ए फानी से
कहते हुए जायेंगे
बस खेल तमाशा है
मेला है ये दो पल का
मेला है ये दो पल का
जीवन जिसे कहते हैं
खुद आग लगाये हम
चढ़ते हैं बलंदी पर
इक मौत का कुआं है
जिस कुऐं में इक दिन हम
इस मेले झमेले में
इस खेल तमाशे में
कल कूद ही जायेंगे
कल दूसरे आयेंगे
जो खेल दिखायेंगे
हम हाथ मले तन्हा
इस दुनिया ए फानी से
कहते हुए जायेंगे
बस खेल तमाशा है
मेला है ये दो पल का
--कमला सिंह 'ज़ीनत'
Tuesday 19 July 2016
मेरी एक ग़ज़ल
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जब मुहब्बत के परिंदे को जी पर लगने लगा
जाने क्यों ऐसे में अपनों से डर लगने लगा
प्यार जब हो गया तो ,फ़ितरतन ख़ामोश रही
एक सुनसान सा मेरा भी ये घर लगने लगा
होश क्यों खोती रही उसके तसव्वुर में भला
मुझको ये तो मुहब्बत का असर लगने लगा
जानी दुश्मन वो मेरे होश का आया ज़ालिम
जिस्म एकदम से मेरा ऐसे में तर लगने लगा
नींद उड़ जाती है आँखों से थकन ओढ़े हुए
जाके तकिए से परीशान - सा सर लगने लगा
देखती जब भी हूँ 'ज़ीनत' ये नज़ारा कोई
टूटा बिखरा हुआ अपना ही ये दर लगने लगा
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
Friday 15 July 2016
Thursday 14 July 2016
मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है आप सबके हवाले
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इश्क़ में तेरे क्या हो गयी
मुस्तक़िल इक दुआ गयी
इक चमन की मोहब्बत में मैं
हाय बाद- ए -सबा हो गयी
बनके तितली सी उड़ती रही
इक मुकम्मल हवा हो गयी
मेरी खुशियों यूँ देख कर
ज़िंदगी भी फ़िदा हो गयी
उसको पाते ही मैं बा-ख़ुदा
आज ख़ुद से जुदा हो गयी
आज 'ज़ीनत' ग़ज़ल आपकी
सुर्ख़ रंग- ए -हीना हो गयी
---'कमला सिंह 'ज़ीनत'
Monday 11 July 2016
मेरी एक ग़ज़ल
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आग खुद में लगाए हुए हैं
दिल में उसको बसाए हुए हैं
उसकी सरकार में इक सदी से
अपने सर को झुकाए हुए हैं
जिसको होती नहीं मैं मयस्सर
मुझपे तोहमत लगाए हुए हैं
हर सितम सह के ज़िंदगी का
गम में भी मुस्कुराए हुए हैं
जो भी आता है उसके मुक़ाबिल
उसको क़द से गिराए हुए हैं
उसकी चाहत में हम आज 'ज़ीनत'
अपना सब कुछ लुटाए हुए हैं
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
Friday 8 July 2016
मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले
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फिर उसी सम्त से इक बार सदा दे मुझको
खुशबूओं से हो मोअत्तर वो हवा दे मुझको
पास रहने दे ख्यालों को ज़रा पहलू में
या तो फिर जाने दे पहलू से उठा दे मुझको
इक फटी सी हूँ मैं चादर तेरे क़ाबिल तो नहीं
गर तरस आये तुझे यार बिछा दे मुझको
दिल में जो गर्द है नफरत की कोई बात बने
सामने आती हूँ जी भर के सुना दे मुझको
चूम के लब के हरे शाख़ को मेरे हमदम
शोख़ उल्फ़त की कोई रंग-ए-हीना दे मुझको
आख़िरी लफ्ज़ ठहर जाए लब-ए-'ज़ीनत' पर
मेहरबाँ हो के तू पत्थर सा बना दे मुझको
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
Sunday 26 June 2016
बस यूँ ही
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हर दिन ,हर वक़्त
हर पल ,हर सेकंड
कोई न कोई खबर आती है
मरने की ...
मैं भी तो हर रोज़ मरती हूँ
एक नए ताने
एक नए उलाहने
एक नयी बात
रूठने का डर
और एक बिछड़ने के दर्द के साथ
शब के पहलु में आने से लेकर
सुब्ह की किरणों के चूमने तक भी
मुसलसल एक ही फ़िक्र
एक ही डर
एक ही बात
फिर एक नयी मौत
फिर एक नयी मौत
--- कमला सिंह 'ज़ीनत'
शतरंज की चाल
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ज़िंदगी शतरंज है
हम सभी चाल चल रहे हैं अपनी अपनी
सामने वाला हार जायेगा
यही हसरत पाले खेल रहे हैं सभी
हम ज्यादा सर्वश्रेष्ठ हैं यह भी गुमान है
तो ठहरो ज़रा एक बात बताएं तुम्हें
यह धरती बहुत बड़ी है
और लोग एक से बढकर एक
हम भी उन्हीं में से एक हैं
हां तो तुम
जब मोहरे उठाने की कोशिश करते हो
तुम्हारे हिलने
और मोहरे को छूने के
बीच की दूरी से पहले ही
हम तुम्हारी अगली चाल तय कर लेते हैं
तो चलो अब खेलो मेरे साथ
शह और मात का खेल
----कमला सिंह 'ज़ीनत '
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ज़िंदगी शतरंज है
हम सभी चाल चल रहे हैं अपनी अपनी
सामने वाला हार जायेगा
यही हसरत पाले खेल रहे हैं सभी
हम ज्यादा सर्वश्रेष्ठ हैं यह भी गुमान है
तो ठहरो ज़रा एक बात बताएं तुम्हें
यह धरती बहुत बड़ी है
और लोग एक से बढकर एक
हम भी उन्हीं में से एक हैं
हां तो तुम
जब मोहरे उठाने की कोशिश करते हो
तुम्हारे हिलने
और मोहरे को छूने के
बीच की दूरी से पहले ही
हम तुम्हारी अगली चाल तय कर लेते हैं
तो चलो अब खेलो मेरे साथ
शह और मात का खेल
----कमला सिंह 'ज़ीनत '
Friday 24 June 2016
मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले
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प्यासी हूँ बहुत प्यास है अब जाम दे साक़ी
रिन्दों में किसी तौर से अब नाम दे साक़ी
ठहरा ही नहीं कोई भी मयकश मेरे आगे
हर ओर मेरा ज़िक्र है ईनाम दे साक़ी
यूँ तो मेरे हिस्से में कई शब मिले बेहतर
अब ख़्वाहिशें इतनी है कोई शाम दे साक़ी
नज़रों से बनाऊँगी मैं पैमाने को शीरीं
ला जाम इसी हाल में कुछ ख़ांम दे साक़ी
उजरत तो हमेशा लिए जाता है तू सबसे
रौनक ये हमीं से है तो अब दाम दे साक़ी
'ज़ीनत' लिए बैठी है सुराही पे सुराही
कब होगी मुकम्मल ज़रा इल्हाम दे साक़ी
------कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक ग़ज़ल हाज़िर है आपके हवाले
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लफ्ज़ सारे अयाँ हो गए
सारे किस्से बयाँ हो गए
वो हमारा हुआ हु- ब- हु
और हम कहकशाँ हो गए
बात थी आपसी कुछ मगर
फासले दरमियाँ हो गए
रफ़्ता- रफ़्ता लगी चोट यूँ
सिसकियाँ,सिसकियाँ हो गए
हम सुलगते रहे रहे दर-ब-दर
बा-ख़ुदा तितलियाँ हो गए
मौज 'ज़ीनत' वो होता रहा
और हम कश्तियाँ हो गए
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक ग़ज़ल हाज़िर है आपके हवाले
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लफ्ज़ सारे अयाँ हो गए
सारे किस्से बयाँ हो गए
वो हमारा हुआ हु- ब- हु
और हम कहकशाँ हो गए
बात थी आपसी कुछ मगर
फासले दरमियाँ हो गए
रफ़्ता- रफ़्ता लगी चोट यूँ
सिसकियाँ,सिसकियाँ हो गए
हम सुलगते रहे रहे दर-ब-दर
बा-ख़ुदा तितलियाँ हो गए
मौज 'ज़ीनत' वो होता रहा
और हम कश्तियाँ हो गए
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
Wednesday 1 June 2016
कभी याद की मेरी बस्ती में भूले
अगर बचपने की वो नन्हीं सी गुडिया
मचलती,उछलती हुई पास आई
तो फिर दिल कडा़ करके ऐसे में उसको
हिरासत में लेकर बनाएंगे बंदी
निहारेंगे जी भर
बहुत प्यार देंगे
गले से लगाकर लिपट जायेंगे हम
कहां खो गई मेरी नन्हीं सी गुडिया
अरे वक्त़ तुमने ये क्या जु़ल्म ढाया
कहां थे कभी
अब कहां आ गये हम
क्या खुद
अपने बचपन को ही खा गये हम
समझ भी न पाए
समझ भी न आए
अजब दास्तां है
सुने न सुनाए
हमीं अपनी यादों में बैठे मुसलसल
बहुत याद आए
बहुत याद आए
अगर बचपने की वो नन्हीं सी गुडिया
मचलती,उछलती हुई पास आई
तो फिर दिल कडा़ करके ऐसे में उसको
हिरासत में लेकर बनाएंगे बंदी
निहारेंगे जी भर
बहुत प्यार देंगे
गले से लगाकर लिपट जायेंगे हम
कहां खो गई मेरी नन्हीं सी गुडिया
अरे वक्त़ तुमने ये क्या जु़ल्म ढाया
कहां थे कभी
अब कहां आ गये हम
क्या खुद
अपने बचपन को ही खा गये हम
समझ भी न पाए
समझ भी न आए
अजब दास्तां है
सुने न सुनाए
हमीं अपनी यादों में बैठे मुसलसल
बहुत याद आए
बहुत याद आए
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
Thursday 26 May 2016
मेरी एक ग़ज़ल
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लहू उबाल दे अशआर की ज़रूरत है
अभी तो शायरे - दमदार की ज़रूरत है
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लहू उबाल दे अशआर की ज़रूरत है
अभी तो शायरे - दमदार की ज़रूरत है
हर एक सिम्त तमाशा है जश्ने मक़तल है
कलम की शक्ल में तलवार की ज़रूरत है
कलम की शक्ल में तलवार की ज़रूरत है
जो जम चुके हैं किनारों पे झाड़ियों कि तरह
उन्हें मिटाना है मझधार की ज़रूरत है
उन्हें मिटाना है मझधार की ज़रूरत है
थकी हुई हैं जो क़ौमे रहम के क़ाबिल हैं
उन्हीं को साया- ए-अशजार की ज़रूरत है
उन्हीं को साया- ए-अशजार की ज़रूरत है
हमारे सर पे फ़क़त आसमान काफी है
हमें न दोस्तों मेमार की ज़रूरत है
हमें न दोस्तों मेमार की ज़रूरत है
जो रख दूँ पाँव तो दरिया भी रास्ता दे दे
ऎ 'ज़ीनत' हमको न पतवार की ज़रूरत है
-------कमला सिंह 'ज़ीनत'
ऎ 'ज़ीनत' हमको न पतवार की ज़रूरत है
-------कमला सिंह 'ज़ीनत'
Saturday 14 May 2016
Friday 13 May 2016
मेरी एक ग़ज़ल
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ना दौलत इम्लाक के बल पर आई हूँ
मैं अपने अख्लाक़ के बल पर आई हूँ
आँधी और तूफ़ान से मेरा शिकवा क्या
शम्मा हूँ मैं ताक़ के बल पर आई हूँ
दुनियाँ वाले इज़्ज़त मुझको क्या देंगे
नाम-ए-ख़ुदा अफलाक के बल पर आई हूँ
गूंगे हैं एहसास हमारे पर फिर भी
खुश लहजा बे-बाक के बल पर आई हूँ
मिट्टी हूँ मैं गूँथ रही हूँ 'ज़ीनत' को
हिस्से-हिस्से चाक के बल पर आई हूँ
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
Wednesday 11 May 2016
Sunday 1 May 2016
मेरी एक और ग़ज़ल हाज़िर है
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मेरे मुँह पर ताला है
इक मकड़ी का जाला है
हाथ में मेरी मेहनत का
रोशन एक निवाला है
बिल्कुल थे खुद्दार बहुत
जिन हाथों ने पाला है
सादेपन ने मुझको ही
हर मुश्किल में डाला है
मैंने अक्सर देखा है
चाँद के रुख़ पे काला है
नीम अँधेरा 'ज़ीनत' में
पर हर सिम्त उजाला है
--कमला सिंह 'ज़ीनत'
Friday 29 April 2016
Friday 22 April 2016
ज़िंदगी
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ज़िंदगी हादसों से गुज़री है
हादसातों का सिलसिला हूँ मैं
है जीगर किसका जो सुन ले मुझको
गाँठ खुलते ही सुलग जाते हैं लोग
इसलिए चुप है लबों पर जारी
कैसे कह दूँ खुली किताब हूँ मैं
ऐसी चादर है पिछली यादों की
रोज़ ब रोज़ रंग छोड़ती है
ताना पड़ते ही दरक जाती है
और सम्भाले नहीं सम्भलती है
बाद इस तार तार चादर के
इक नई और आई है चादर
जिसको ओढे हुए सुकून की नींद
सोती रहती हूँ मुख्ख्तसर ये है
बाद किस्सा ब्यान कल होगा
चादरों का यहाँ भरोसा क्या
वक्त़ के साथ रंग छोड़ती हैं
वक्त़ के साथ दरक जाती हैं
जाने कब तक ये सिलसिला हो नसीब
आह ये ज़िंदगी तमाशा करे
लज्ज्जतों का हमें बताशा करे
एक मुफ्लिस सी ज़िंदगी ज़ीनत
हाथ फैलाए ही गुज़ारा करे
जाने अब कौन है जो सुन लेगा
अब किसे बोल तू पुकारा करे
ये जुआ खेलना ज़रुरी भी है
और हर रोज़ खुदको हारा करे
दिल के आँगन में दाग़दार सही
रोज़ उस चाँद को उतारा करे
जो मुकद्दर में आज आया है
ज़िंदगी भर ख़ुदा हमारा करे।
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
हादसातों का सिलसिला हूँ मैं
है जीगर किसका जो सुन ले मुझको
गाँठ खुलते ही सुलग जाते हैं लोग
इसलिए चुप है लबों पर जारी
कैसे कह दूँ खुली किताब हूँ मैं
ऐसी चादर है पिछली यादों की
रोज़ ब रोज़ रंग छोड़ती है
ताना पड़ते ही दरक जाती है
और सम्भाले नहीं सम्भलती है
बाद इस तार तार चादर के
इक नई और आई है चादर
जिसको ओढे हुए सुकून की नींद
सोती रहती हूँ मुख्ख्तसर ये है
बाद किस्सा ब्यान कल होगा
चादरों का यहाँ भरोसा क्या
वक्त़ के साथ रंग छोड़ती हैं
वक्त़ के साथ दरक जाती हैं
जाने कब तक ये सिलसिला हो नसीब
आह ये ज़िंदगी तमाशा करे
लज्ज्जतों का हमें बताशा करे
एक मुफ्लिस सी ज़िंदगी ज़ीनत
हाथ फैलाए ही गुज़ारा करे
जाने अब कौन है जो सुन लेगा
अब किसे बोल तू पुकारा करे
ये जुआ खेलना ज़रुरी भी है
और हर रोज़ खुदको हारा करे
दिल के आँगन में दाग़दार सही
रोज़ उस चाँद को उतारा करे
जो मुकद्दर में आज आया है
ज़िंदगी भर ख़ुदा हमारा करे।
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
Wednesday 13 April 2016
कभी हँसाता है मुझको कभी रुलाता है
वो इस तरीके से आकर मुझे सताता है
वो इस तरीके से आकर मुझे सताता है
कहाँ तलक मैं ख़्यालात को ज़ंजीर करुँ
जकड़ के बैठूँ मगर फिर भी याद आता है
जकड़ के बैठूँ मगर फिर भी याद आता है
बिठा के रोज़ मुझे अपने दिल के मक़तब में
वो अपने प्यार का कलमा मुझे पढा़ता है
वो अपने प्यार का कलमा मुझे पढा़ता है
मैं उससे रुठूँ तो बेचैन होने लगता है
मनाने बैठूँ तो अक्सर वो रुठ जाता है
मनाने बैठूँ तो अक्सर वो रुठ जाता है
न जाने कैसी है आदत ख़राब ये उसकी
हमारी आँखों से वो नींद ही उडा़ता है
हमारी आँखों से वो नींद ही उडा़ता है
उचट ही जाती हैं नींदें हमारी रातों को
वो आस - पास नए गीत गुनगुनाता है
वो आस - पास नए गीत गुनगुनाता है
कभी मैं पूछूँगी उसके करीब ये जाकर
वो छोड़कर मुझे क्या अपने घर भी जाता है
वो छोड़कर मुझे क्या अपने घर भी जाता है
किसे बसायेगा "जी़नत" वहाँ ख़बर तो लें
सुनहली रेत पे वो किसका घर बनाता है
सुनहली रेत पे वो किसका घर बनाता है
-------------कमला सिंह 'ज़ीनत'
Tuesday 5 April 2016
पुस्तक से एक और ग़ज़ल
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सहन अपना बाँट दीजिये
तल्ख़ियों को पाट दीजिये
तल्ख़ियों को पाट दीजिये
दूसरों को भी मिले सबक़
इक नया प्लॉट दीजिये
इक नया प्लॉट दीजिये
लिख के पूरी अपनी ज़िंदगी
डॉट - डॉट - डॉट दीजिये
डॉट - डॉट - डॉट दीजिये
दौर अब नहीं रहा जनाब
भाईयों को डाँट दीजिये
भाईयों को डाँट दीजिये
उठ गए जो आपकी तरफ़
उँगलियों को काट दीजिये
उँगलियों को काट दीजिये
ज़िंदगी है फ़िल्म ये ज़ीनत
इक हसीन शॉट दीजिये
इक हसीन शॉट दीजिये
----------कमला सिंह 'ज़ीनत'
Thursday 31 March 2016
Wednesday 30 March 2016
Monday 28 March 2016
Tuesday 22 March 2016
Saturday 12 March 2016
Thursday 18 February 2016
Sunday 14 February 2016
मेरी नयी पुस्तक जिसका विमोचन ७ फ़रवरी को हुआ उस पुस्तक की एक ग़ज़ल हाज़िर करती हूँ
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ज़िंदगी अपनी गुज़ारी है सुख़नवर की तरह
खुद को रखती हूँ करीने से मैं ज़ेवर की तरह
जब कोई शख़्स कभी मुझसे बद-कलाम करे
मैं मुख़ातिब तभी हो जाती हूँ तेवर की तरह
हम इसी भीड़ में चलते हैं मगर होश लिए
कौन मिल जाए कभी मुझसे भी अजगर की तरह
उससे मिलने की बराबर मुझे होती है तलब
मुझसे मिलता है मेरा अपना भी दिलवर की तरह
जब जब भी सुकूँ चाहिए होता है मुझे ऐसे में
मैं बिछा देती हूँ उस प्यार को चादर की तरह
ये है 'ज़ीनत' का अलग रंग ज़माना सुन ले
पास आये ना कोई बनके यूँ नश्तर की तरह
-----------कमला सिंह 'ज़ीनत'
Sunday 24 January 2016
जो भी फुटपाथ के किनारे हैं
वे फ़क़त मुफ़्लिसी के मारे हैं
मर ही जाते गरीब ठंडक से
जी रहे आग के सहारे हैं
वे फ़क़त मुफ़्लिसी के मारे हैं
मर ही जाते गरीब ठंडक से
जी रहे आग के सहारे हैं
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
Saturday 23 January 2016
Thursday 21 January 2016
Tuesday 19 January 2016
Sunday 17 January 2016
Saturday 16 January 2016
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