Sunday 23 February 2014

मेरा भी कोई है ****************** दुनिया की निगाहें सुनो इक बात यह दिल की मेरा भी ठिकाना है घरौंदा भी मेरा है भगवान भी मेरा है मेरा कोई खुदा है परवाज़ भी है और फलक मेरा है अपना हर हाल में हर्गिज़ कभी मोहताज नहीं मैं चलने लिए पांव है खाने के लिए हाथ रहमो करम की भीक यह किस काम के मेरे हम शान व शौकत से जिये हैं और जियेंगे रहमत की बारिशें हैं समुन्दर है साथ साथ जो तुमको समझ आता है सच है कि वही है तन्हा नहीं मैं बज्म में मेरा भी कोई है दुनिया की निगाहें सुनो कमला सिंह 'ज़ीनत'
गुमशुदा मुझमें
***************
गुमशुदा कोई तो बैठा है 
मेरी रग रग में 
कोई फिरता है सुबह शाम
लहू के अन्दर
एक तूफान सा उठता है
तबाही बन कर
दिल की धड़कन को बढा देता है
कातिल मेरा
मेरी चाहत में टहलता है वो
दिवाना सा
मुझ पे छा जाता है हर वक्त वो
बादल बनकर
मुझको यादों में लिये फिरता है
बंजारे सा
रुह पर मेरी मुसल्लत है वो
फरिशते सा
बस उसे सोचते रहने के सिवा
कुछ भी नहीं
मेरी दिन रात की पूजा है
इबादत है वह
मुझको जिस हाल में रक्खे
मेरी कुदरत है वो
वह ज़माने से गुज़रता है
अमीरों की तरह
गुमशुदा मुझमें वह रहता है
फकीरों की तरह
...कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday 22 February 2014

Nazar nazar ki ye takraao bataa deti hai samne kaun hai kaisa hai kya soch hai rakhne wala kamla singh zeenat

Aa mere saamne insaan ki surat me kabhi dekh main tujhko farishte ki nazar dekhungi kamla singh zeenat
Main ne ek buut taraash kar dekha
chaah karne laga khudaai ki

Kamla Singh zeenat.
कुछ भी
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लिखने को तो कुछ भी लिक्खा जा रहा है
बिना सिंग के बैल
पटरी बिन रेल गाड़ी 
पेड़ बिना फल
इंसान बिन दुनिया
जल बिन जीवन
शब्द बिन बोल
आधार बिन कविता
विचार बिन कविता
लिखना ही है तो लिक्खा जा सकता है
कुछ भी

कमला सिंह 'ज़ीनत'
मैं लिखूँगी
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जहाँ नदी की घार रुके 
जहाँ उजडा पडा हो चमन
जहाँ गूँगी चिड़िया डाल डाल हो
जहाँ मौन हो जाएँ शब्द 
जहाँ दूर तक अंधेरा हो
जहाँ सूरज सो जाए
सिर्फ सन्नाटा ही सन्नाटा हो
विचलित होना उसी पल
मेरे बेचैन मन
मै लिखूँगी कविता

कमला सिंह 'ज़ीनत'
हद और क़द में इंसान रहते हैं 
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हद शब्द बहुत मायने रखता है
कद के साथ इसका संयोग 
व्यक्तित्व को निखारता है
यह एक प्रमाण है 
सुन्दर व्यक्तित्व का
निखार का
विचार का
आधार का
क्योंकि
हद और क़द में इंसान रहते हैं

कमला सिंह 'ज़ीनत'
मैं भी चेहरा पढती हूँ
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जैसे के इश्वर ने सभी को पारखी नजर
और
एक दूसरे को पढ लेने का फ़न दिया है
यह कृपा 
ईश्वर की 
मुझ पर भी है 
आपका अनुमान क्या है 
मेरे बारे में 
पता नही मुझे
पर
आप क्या हैं ?
मैं खूब जानती हूँ
क्योंकि
मैं भी चेहरा पढती हूँ

कमला सिंह 'ज़ीनत'
उँगलियाँ छोटी बहुत हैं तेरी उठा मत तू
कट के गिर जाएँगी किरदार तक आते आते

कमला सिंह 'ज़ीनत'

रगों में दौड़ रहा है लहू खुद्दारी का 
उबाल आएगा तो लाल लाल कर देगा

कमला सिंह 'ज़ीनत'

एक उम्दह सी ग़ज़ल लिखने की ख्वाहिश मेरी
भूक और प्यास के मोआनी ही बदल देती है

kamla singh zeenat
इतना तू शैख़ बस दुआ दे दे
मेरे होने का तू पता दे दे
तेज है धूप जिंदगी की बहुत
हो सके तो मुझे हवा दे दे
---कमला सिंह 'ज़ीनत'


कब,कहाँ,कैसे है,कहना सीखो
अपनी औकात में रहना सीखो
कौन कहता है कि दरिया हो तुम
तुझमें दरिया है तो बहाना सीखो

कमला सिंह 'ज़ीनत'-


जंग लड़ने का अगर शौक है तो ऐसा कर
पहले मकतल से पता करले कि जीनत है कौन

कमला सिंह 'ज़ीनत'-
अपने जीनत पे तू इस दौर में कर फख्र ऐ दिल्ली
ज़माना कल को लिक्खेगा कि यह जीनत की दिल्ली है

कमला सिंह 'ज़ीनत'

शायरी करती है जीनत कोई मजाक नहीं 
शीकारी लफ्जो के पर को कतरना जानती है 

कमला सिंह 'ज़ीनत'


Wednesday 19 February 2014

नज़म -मैं जिससे प्यार करती हूँ
************************
मै जिससे प्यार करती हूँ
मेरी आँखों की ठंडक है
मेरी साँसों की खुशबू है
मेरी धड़कन की धक-धक है
मेरे होने का मतलब है
मेरे ख्वाबों का किस्सा है
मेरे तन-मन का हिस्सा है 
जिससे प्यार करती हूँ 
उसे जाँचा बहुत हमने
उसे परखा बहुत हमने
उसे सोचा बहुत हमने
उसे देखा बहुत हमने
मैं जिससे प्यार करती हूँ
लगा वह मेरे काबिल है
लगा वह मेरा सपना है
लगा वह मुझमें शामिल है
लगा वह मेरे लायक है
उसी दम हो गयी उसकी
मैं जिससे प्यार करती हूँ
हाँ उससे प्यार करती हूँ

---कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरे ग़मखाने में रहता है जो सूफी की तरह
उसको दुनिया मेरा महबूब कहा करती है 

कमला सिंह 'ज़ीनत'

दर्द लिखने का सिला यूँ मिला मुझको जीनत
फूल लिखती हूँ तो उग आते हैं काँटे काँटे

कमला सिंह 'ज़ीनत'

खुली हवाओं में सांस लेती हूँ परों को फैलाकर 
जहाँ दम घुटे वहाँ परवाज़ नहीं करती मैं 
--------'ज़ीनत '

जिसको बनाना अपना था वह बात कल तलक
जो आज है नसीब से मुझतक तमाम है

कमला सिंह 'ज़ीनत'

तेरे दर्दे दिल के हर ज़ख्म कि दवा हूँ मैं 
मयस्सर हुआ जो दर्द उसकी दुआ हूँ मैं 
------कमला सिंह 'ज़ीनत'
मतले से, मकते तक लिक्खा, पूरी ग़ज़ल हुई लेकिन 
जिस जिस शेर में, उसको सोचा, मिसरा मिसरा दमक गया

कमला सिंह 'ज़ीनत'


शायरी करती है जीनत कोई मजाक नहीं 
शीकारी लफ्जो के पर को कतरना जानती है 

कमला सिंह 'ज़ीनत'

अपने जीनत पे तू इस दौर में कर फख्र ऐ दिल्ली
ज़माना कल को लिक्खेगा कि यह जीनत की दिल्ली है

कमला सिंह 'ज़ीनत'

पूछते रहते हो क्यूँ अकसर उस दिलवर का मुझसे नाम
जिसने रब को देख लिया हो वह पूछे बतला दूँगी

कमला सिंह 'ज़ीनत'

उसको चाहूँ न तो मर जाउँगी मैं घुट घुट कर
खूद के जीने के लिए उसकी ज़रुरत है मुझे 

कमला सिंह 'ज़ीनत'
नज़म -मैं जिससे प्यार करती हूँ ************************ मै जिससे प्यार करती हूँ मेरी आँखों की ठंडक है मेरी साँसों की खुशबू है मेरी धड़कन की धक-धक है मेरे होने का मतलब है मेरे ख्वाबों का किस्सा है मेरे तन-मन का हिस्सा है जिससे प्यार करती हूँ उसे जाँचा बहुत हमने उसे परखा बहुत हमने उसे सोचा बहुत हमने उसे देखा बहुत हमने मैं जिससे प्यार करती हूँ लगा वह मेरे काबिल है लगा वह मेरा सपना है लगा वह मुझमें शामिल है लगा वह मेरे लायक है उसी दम हो गयी उसकी मैं जिससे प्यार करती हूँ हाँ उससे प्यार करती हूँ कमला सिंह 'ज़ीनत'
तेरे दर्दे दिल के हर ज़ख्म कि दवा हूँ मैं 
मयस्सर हुआ जो दर्द उसकी दुआ हूँ मैं 
------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday 15 February 2014

मेरे दिल से निकली ये बात ,आप तक पहुचाती हूँ 
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ख़ुशी से सर झुकाते हैं इबादत हम भी करते हैं 
अगर इज्ज़त पे बन जाए बगावत हम भी करते हैं 
हुनर हमको भी आता है सलीक़ा सिखा है हम ने 
अदावत हम भी करते हैं मुहब्बत हम भी करते हैं 
---------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Khushi se sar jhukate hai ebadat ham bhi karte hain
Agar izzat pe ban jaaye bagaawat ham bhi karte hain
Hunar hamko bhi aata hai saliqa sikha hai ham ne
Adaawat ham bhi karte hain mohabbat ham bhi karte hain
......kamla singh "zeenat "
जब भी डाली निगाह बाग़ के हर डाली पर 
तमाम डाली ये बोली निगाह क्यूँ डाली 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

अर्श पर यूँ उड़ते  है तो परिंदे एक साथ 
एक तेरी बद दुआ के एक मेरे सब्र का 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

बद दुआ कि भीड़ लेकर पास आता है मेरे 
वक़्त से शिक़वा करूँ तो मेरी रुसवाई है 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

दिया जला के मेरे हाथ पे रख दो आकर 
उजाला तुझको, मेरे हाथ को छाला मंज़ूर 
------कमला सिंह 'ज़ीनत 

Wednesday 12 February 2014

-------ग़ज़ल------------
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बिजलियों से क्या शिकवा तीलियों से क्या शिकवा 
ख़ाक   ही  मुकद्दर  है  आँधियों  से      क्या  शिकवा 

घर  का  मेरा  गुलदस्ता  फूल  को   तरसता       है 
फूल भी नहीं  हासिल  तितलियों से  क्या    शिकवा 

ज़हर   ज़हर    फैला    है    हर   तरफ     हवाओं  में 
इस  तरह की  सूरत में   खिड़कियों से क्या शिकवा 

बदनसीबी  लिखी   है   ज़िंदगी    के   माथे       पर 
क्यूँ  नहीं   खनकती  हैं ,चूड़ियों   से   क्या   शिकवा 

दिल   के   कोने   कोने   से   चीख़  उठती    रहती है 
रोज़  का  ये आलम है   सिसकियों से क्या  शिकवा 

हसरतों   की   चिड़ियों    का  खून   हो   चुका  ज़ीनत 
जो  जिगर   में   चुभते   हैं किरचियों से  क्या शिकवा 
---------------------कमला  सिंह ज़ीनत 

Monday 10 February 2014

जिंदगी गाड़ी की भांति 
तेजी से भागती 
अपने रफ्तार से
कभी रूकती 
कहीं ठहरती 
टूटती भी 
फूटती भी 
कभी कुछ परेशानी 
कभी खींचातानी 
फिर रिपेयर 
और तैयार है
फिर से
जिंदगी की भांति
आगे बढ़ने के लिए.......
..कमला सिंह "जीनत "

Sunday 9 February 2014

ख़याल 
---------------
ज़िंदगी के बोझ तले 
इंसान कि सोच तले 
गुजरते  हैं ख्याल 
कुछ साँसों को रोके हुए 
कुछ तेज़ क़दमों से 
भागती हुई  हसरतें 
आगे बढ़ने कि चाह लिए 
साथ सबके भले पर 
मंज़िल को छूने की 
चाह में 
दाव  पर लगा कर खुद को 
हासिल करने के लिए  
कुछ को हार  नसीब 
और कुछ को जीत 
धाराशायी हो जाते है 
ख्याल 
और फिर शुरू होता है 
एक नया 
सिलसिला .......... 
कमला सिंह 'ज़ीनत'
वही 
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वजूद मेरा 
मेरे होने की 
दलील वही 
मैं प्यासी 
जिस जा फिरुँ 
बनता है सबील वही 
वही है मेरा खुदा 
मेरा रहनुमा मौला, 
वही है दरिया 
समंदर 
तो मीठी झील वही 
ज़माना तू क्या करेगा 
रहम का भिखारी 
तुम्हारे पास तो 
एक सांस भी लेना 
मुश्किल 
नहीं है 
दाता सिवा रब के  
पूरी दुनियां में 
मैं जानती हूँ 
मुझे फ़क्र है 
रहमानी पर 
मुझे फ़क्र है 
सुल्तानी पर 
मैं जानती हूँ 
मुझे फ़क्र है 
वो ख़ालिक़ है 
और मालिक है 
मैं जानती हूँ 
नहीं उसके मुक़ाबिल कोई 
वो आसमान का मालिक 
वही ज़मीन ,वाला 
परिंदों का ख़ालिक़ 
वही 
चरिन्दों का शाह 
हवा चले तो 
वही ज़ेरो जबर 
करता है 
उसी के दम पे ज़माना 
उड़ान भरता है 
जलाल उसका 
कुदूरत पे है 
जलील वही 
वज़ूद मेरा 
मेरे होने की 
दलील वही 
--कमला सिंह 'ज़ीनत '

Saturday 8 February 2014

काश
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दिल करता है
हवाओं को मुट्ठी में पकडूँ
और
निचोड़ डालूँ
ताकि 
नफरत की बूँद बूँद गड़ जाए
और
मेरी हथेली पर बचा रह जाए
मिलावट रहित
प्यार की खुशबू
काश-----------

कमला सिंह 'ज़ीनत'
पसंद नहीं
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ऊँचाई किसे नहीं भाती 
सभी को उड़ना अच्छा लगता है
मुझे भी
परन्तु 
ऊँचाई की चाह में
प्रतिष्ठा की लाश पर
अंगूठे के बल पर खड़ा होना
मुझे पसंद नहीं
बन्धु मुझे पसंद नहीं
बोला न मुझे-------------
KAMLA SINGH 'ZEENAT'
मैं जानती हूँ
----------------
कौव्वा,गिद्ध,काग
सूअर,कुत्ता और सियार
यह भी हैं
इसी धरती पर-------
मोर,हंस, कबूतर
हिरन,ऊँट और हाथी
यह भी हैं --------
और 
मैं भी
मुझे किस श्रेणी में रहना चाहिए
मैं जानती हूँ
हाँ जी हाँ मैं जानती हूँ ।

कमला सिंह 'ज़ीनत'
Wahiiiiiiii
¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤
Wajood mera
Mere hone ki 
Daliil wahi
Main pyaasi 
Jis ja phirun
Banta hai sabeel wahi
Wahi hai mera khuda
Mera rahnuma Maula
Wahi hai dariya 
Samundar
To mithi jheel wahi
Zamana tu kya karega
Raham ka bhikaari
Tumhare pass to
Ek saans bhi lena
Mushkil
Nahi hai 
data siwa rab ke
Puuri duniya mein
Main jaanti hun
Mujhe fakhr hai
Rahhmaani par
Main jaanti hun
Mujhe fakhr hai
Sultaani par
Main jaanti hun
Wo khaliq hai
Aur maalik hai
Main jaanti hun
Nahi uske muqabil koi
Wo aasmaan ka malik
Wahi zamiN wala
Wahi 
parindon ka khalik
Wahi
Charindon ka shaah
Hawaa chale to
Wahi zero jabar
Karta hai
Usi ke dam pe zamana
Udaaan bharta hai
Jalaal uska 
Qudurat pe hai
Jaliil wahi
Wajood mera
Mere hone ki
Daliil wahi

Kamla Singh zeenat.

कोई तो यहाँ तन कोई फ़न बेच रहा है 
अपना ज़मीर कोई लोग मन बेच रहा है 
नंगा खड़ा है मुर्दा लिए हाथ में कफ़न 
मर कर भी वह बस कफ़न बेच रहा है 
----------कमला सिंह 'ज़ीनत'


दिल से गर बात निकलती तो ग़ज़ल कह जाती 
मैं अगर फिर से बहलती तो ग़ज़ल कह जाती 
इस तरह तेरे तरन्नुम ने समां बांधा था 
रुक के कुछ देर संभलती तो ग़ज़ल कह जाती 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
दिल से गर बात निकलती तो ग़ज़ल कह जाती 
मैं अगर फिर से बहलती तो ग़ज़ल कह जाती 
इस तरह तेरे तरन्नुम ने समां बंधा था ज़ीनत 
रुक के कुछ देर संभलती तो ग़ज़ल कह जाती 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
ये कितनी प्यारी प्यारी बेटियां हैं 
खुदा ने भी सँवारीं बेटियां हैं 
बहुत भोली सी होती है ये गुड़िया 
सभी घर की दुलारी बेटियां  हैं 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
ज़मीन बेचते हैं, आसमान बेचते हैं 
दुकानदार भी खुद का दूकान बेचते हैं 
यही सवाल तो इक सबसे कर रही 'ज़ीनत' 
क्यूँ उड़ने वाले परिंदे उड़ान बेचते हैं 
----------कमला सिंह 'ज़ीनत'