Thursday 26 May 2016

मेरी एक ग़ज़ल
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लहू उबाल दे अशआर की ज़रूरत है
अभी तो शायरे - दमदार की ज़रूरत है
हर एक सिम्त तमाशा है जश्ने मक़तल है
कलम की शक्ल में तलवार की ज़रूरत है
जो जम चुके हैं किनारों पे झाड़ियों कि तरह
उन्हें मिटाना है मझधार की ज़रूरत है
थकी हुई हैं जो क़ौमे रहम के क़ाबिल हैं
उन्हीं को साया- ए-अशजार की ज़रूरत है
हमारे सर पे फ़क़त आसमान काफी है
हमें न दोस्तों मेमार की ज़रूरत है
जो रख दूँ पाँव तो दरिया भी रास्ता दे दे
ऎ 'ज़ीनत' हमको न पतवार की ज़रूरत है
-------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday 14 May 2016

ख़ुशबू में बसा होगा गुलाबों में मिलेगा
आँखों में तलाशोगी तो ख़्वाबों में मिलेगा
'ज़ीनत' जो हज़ारों ही सवालात जगा दे
ढूँढोगी उसे जब भी जवाबों में मिलेगा
__________कमला सिंह 'ज़ीनत'
ऐसे सीने से मेरे खुदको गुज़ारे क़ातिल
जैसे गरदन से कोई चाकू उतारे का़तिल
चाँद का जि़क्र किया और ये आफ़त आई
हो गये सुनके उसी रात सितारे का़तिल
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 13 May 2016

मेरी एक ग़ज़ल 
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ना  दौलत  इम्लाक के बल  पर आई हूँ 
मैं  अपने अख्लाक़  के बल पर आई  हूँ 

आँधी  और  तूफ़ान से मेरा शिकवा क्या 
शम्मा  हूँ  मैं  ताक़ के  बल  पर  आई हूँ 

दुनियाँ  वाले  इज़्ज़त  मुझको  क्या देंगे 
नाम-ए-ख़ुदा अफलाक के बल पर आई हूँ 

गूंगे   हैं  एहसास  हमारे  पर  फिर  भी 
खुश  लहजा  बे-बाक के बल पर आई हूँ 

मिट्टी   हूँ   मैं  गूँथ  रही  हूँ  'ज़ीनत' को 
हिस्से-हिस्से  चाक के  बल  पर आई हूँ 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 11 May 2016

आज मैं मौन हूँ जानते हो क्यूँ ? शब्दों ने मुझे खुद निशब्द कर दिया है गूंगी बन कर भटक रही हूँ मैं अल्फ़ाज़ों के शहर में ---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 1 May 2016

मेरी  एक और ग़ज़ल हाज़िर है 
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मेरे  मुँह  पर  ताला है 
इक मकड़ी का जाला है 

हाथ में मेरी मेहनत का 
रोशन एक  निवाला   है 

बिल्कुल थे खुद्दार बहुत 
जिन  हाथों  ने पाला  है 

सादेपन  ने  मुझको  ही 
हर  मुश्किल  में डाला है 

मैंने  अक्सर  देखा    है 
चाँद  के  रुख़ पे काला है 

नीम  अँधेरा  'ज़ीनत' में 
पर  हर सिम्त उजाला है 
--कमला सिंह 'ज़ीनत'