Wednesday 28 October 2015

मुस्काता इंसान कहां है
हिन्दू मुसलमान कहां है
सहमा-सहमा है ये भारत
कल का हिन्दुस्तान कहां है
शुक्र रब का है बलंदी पे अभी तक सर है
मेरा हमसाया मददगार मेरा परवर है
ऐ थपेड़ों सुनो कश्ती को हिला सकते नहीँ
मेरी कश्ती का निगहबान अभी ईश्वर है
एक ग़ज़ल हाज़िर है आप सबके हवाले
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रोते रहते हैं सिसकते कम हैं
इस तरह पुतलियों में हम नम हैं
सारी दुनियाँ खुदा सी होती गयी
हम ही बस इस ज़हान में ख़म हैं
नाचती है सुरूर में परियाँ
हम अकेले ही पी रहे ग़म हैं
लग्जिशेँ आई नहीं , भटके क्या
जिस जगह थे वहीँ -वहीँ जम हैं
दर्द ने जब भी हमको लरज़ाया
घुंघरुओं की तरह बजे छम हैं
गुल हैं ''ज़ीनत 'हमीं हैं खुशबू भी
दुश्मनों के लिए हमीं बम हैं
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक मतला दो शेर
उसी वादी में मेरे पर जले थे
जहाँ पर बर्फ के पौधे लगे थे
वहीँ पर घूम कर अब आ चुके हैं
शुरू में जिस जगह से हम चले थे
बस खाली हाथ लौटे हैं सफर से
हमारे पांव में छाले पड़े थे
सब रिश्तों का एक ठिकाना
जीवन का है तानाबाना
दिल के अंदर झांक के देखा
दिल तो है इक चिड़ियाखाना
•••••••••••••••GHAZAL•••••••••••••••••
गुलशन का तेरे किस्सा कल कौन सुनाएगा
कोई भी यहाँ आकर आंसू न बहाएगा
शैतान नूमा इंसां घर - घर को जलाएगा
इस आग को ऐसे में फिर कौन बुझाएगा
होगा जो पड़ोसी ही अपनों से डरा सहमा
मुश्किल की घडी़ में फिर वो कैसे बचाएगा
घर से ही नहीँ जिसको तहज़ीब मिली थोड़ी
आवारा वही बच्चा नफरत को बढाएगा
मंदिर तो बने पल में मस्जिद भी लगे हाथों
टूटे हुए इस दिल को अब कौन बनाएगा
छीना गया बच्चों से क्यूँ बाप के साये को
कल कौन यतीमों को अब राह दिखाएगा
कम्बख्त सियासत है कमज़र्फ़ सियासत दां
हर ज़ख्म पे मरहम ये रूपयों का लगाएगा
जिस हाथमें पत्थर है और सोचमें पागलपन
दावा तो उसी का है गुलशन को सजाएगा
--------कमला सिंह 'ज़ीनत'
सुनो इक बात ऐ समधन हमारी
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सुनो इक बात ऐ समधन हमारी
हमारी है हर इक चिंता तुम्हारी
सजेगा घर हमारा हर खुशी से
मिटेगा अब अंधेरा रौशनी से
हमारा लाडला दुल्हा बनेगा
हम सबके वास्ते साया बनेगा
बहू की शक्ल में लाएंगे बेटी
हमारी और तुम्हारी एक रोटी
रहेगी घर में वो मेरे सलामत
ये रिश्ता यूँ रहेगा ता-क्यामत
तेरे आंसू मेरे आंसू बनेंगे
उधर तुम हम इधर सासू बनेंगे
नया अब सिलसिला सिलते हैं हम तुम
चले आओ गले मिलते हैं हम तुम
कमला सिंह 'ज़ीनत'

कुछ तो ज़रूर छूटा है तुझमें मेरा
अचानक याद आ जाते हो तुम
मैं मशगूल हो जाती हूँ अपने आप में
मसरूफ़ रहती हूँ पल पल
ऐसा क्यूँ होता है अचानक
याद आ जाते हो तुम
कुछ तो ज़रूर छूटा है तुझमें मेरा

Tuesday 20 October 2015

आओ फिर से बहार बनकर
चमन वालों ने पुकारा है
तितलियाँ आंखें बिछाए पड़ी हैं
पत्तियों पर शायराना शबनमी बूटे हैं
भंवरे कतार में खड़े हैं
आमद की खुशबू पसरी है
मैं भी वहीं बैठी हूं
हरी घांस पर
आओ न बहार
तुम्हारे होने और पास बैठने के पल में
घांस सहलाना तोड़ना और उसी जगह
छोड़ कर लौट जाना
बातें सुनी अनसुनी
कही अनकही
आओ न
आओ फिर से बहार बनकर
_________कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday 5 October 2015

सब रिश्तों का एक ठिकाना
जीवन का है तानाबाना
दिल के अंदर झांक के देखा
दिल तो है इक चिड़ियाखाना
जब भी तू दे तो सही दे मौला
मेरे हिस्से न कमी दे मौला
गर दुआएं कभी कबूल तू कर
झोलियां भर के खुशी दे मौला
मीठी - मीठी घर - आंगन बोली उतरे
आसमान से परियों की टोली उतरे
ज़ीनत की या रब इतनी सी ख्वाहिश है
मेरे घर में खुशियों की डोली उतरे
उसी वादी में मेरे पर जले थे
जहाँ पर बर्फ के पौधे लगे थे
वहीँ पर घूम कर अब आ चुके हैं
शुरू में जिस जगह से हम चले थे
बस खाली हाथ लौटे हैं सफर से
हमारे पांव में छाले पड़े थे
गुलशन का तेरे किस्सा कल कौन सुनाएगा
कोई भी यहाँ आकर आंसू न बहाएगा
शैतान नूमा इंसां घर - घर को जलाएगा
इस आग को ऐसे में फिर कौन बुझाएगा
होगा जो पड़ोसी ही अपनों से डरा सहमा
मुश्किल की घडी़ में फिर वो कैसे बचाएगा
घर से ही नहीँ जिसको तहज़ीब मिली थोड़ी
आवारा वही बच्चा नफरत को बढाएगा
मंदिर तो बने पल में मस्जिद भी लगे हाथों
टूटे हुए इस दिल को अब कौन बनाएगा
छीना गया बच्चों से क्यूँ बाप के साये को
कल कौन यतीमों को अब राह दिखाएगा
कम्बख्त सियासत है कमज़र्फ़ सियासत दां
हर ज़ख्म पे मरहम ये रूपयों का लगाएगा
जिस हाथमें पत्थर है और सोचमें पागलपन
दावा तो उसी का है गुलशन को सजाएगा
--------कमला सिंह 'ज़ीनत'