Monday 31 March 2014

---------ग़ज़ल-----------
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उससे मैं इतना प्यार करती हूँ
पल में जीती हूँ पल में मरती हूँ

प्यार कि रोज़ एक इक सीढ़ी
उसकी यादों के बीच चढ़ती हूँ

गैर मुमकिन है उसको खो देना
बस इसी बात से ही डरती हूँ

एक बुत हूँ मगर मैं उसके लिए
रोज़ बनती हूँ और संवरती हूँ

टूट कर मैं ज़मीं पे इक तारा
उसकी चाहत में ही उतरती हूँ

प्यार वो बेपनाह करता है
मैं भी उसके ही सिम्त बढ़ती हूँ

क़ैद से उसके न उड़ूँ ज़ीनत
इसलिए बाल-ओ- पर कतरती हूँ
-------कमला सिंह ज़ीनत
-----------ग़ज़ल---------
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खुद को टुकड़ों में बाँट देती हूँ 
रात आँखों में काट देती हूँ 

एक दिन भी गुज़ार ले कोई 
अपने हिस्से की रात देती हूँ 

सारे ज़ख्मों को ऐसी हालत में 
रोज़ के रोज़ चाट देती हूँ 

जीत और हार के तसलसुल में
अपनी क़िस्मत को मात देती हूँ

खुश्क होटों की प्यास बुझती नहीं
रोज़ दज़ला,फरात,देती हूँ

ऐ अदब चूम अपनी 'ज़ीनत' को
फ़िक्रो फन की ललाट देती हूँ
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
ज़हर ही ज़हर जिस्मों जान किया
ऎ ज़मीं तुझको आसमान किया 

देख तेरी सलामती के लिए 
मैंने खुद को लहुलुहान किया 

बेवजह मुझ पे तोहमतें कैसी 
कब तुझे मैंने बे निशान किया

मुस्कराहट , खुलूस, सब्रो ,करार
जो भी था तेरे दरम्यान किया

जब भी आई बला कभी तुझ पर
बन सका जो भी मैंने दान किया

ज़ीनत को कैसे आज तूने वतन
अपनों पे गैर का गुमान किया
---------कमला सिंह 'ज़ीनत'
---------------ग़ज़ल-------------------
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लहू उबाल दे अशआर की ज़रूरत है 
अभी तो शायरे -दमदार की ज़रूरत है 

हर एक सिम्त तमाशा है जश्ने मक़तल है 
कलम की शक्ल में तलवार की ज़रूरत है 

जो जम चुके हैं किनारों पे झाड़ियों कि तरह 
उन्हें मिटाना है मझधार की ज़रूरत है

थकी हुई हैं जो क़ौमे रहम के क़ाबिल हैं
उन्हीं को साया- ए-अशजार की ज़रूरत है

हमारे सर पे फ़क़त आसमान काफी है
हमें न दोस्तों मेमार की ज़रूरत है

जो रख दूँ पाँव तो दरिया भी रास्ता दे दे
ऎ ज़ीनत हमको न पतवार की ज़रूरत है
--------------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 23 March 2014

Surat sifat tamaam utar aate hain khud se
bas ek nigaahe tuul nazar bhar zara dekhe

Kamla Singh 'zeenat'

Yun to rukhsaar hi hote hain ketaabi panne
deed wale to mokammal hi padha karte hain

कमला सिंह 'ज़ीनत'

रंगों का त्यौहार है आया चल पीपल के छाँव में 
रंगों की बरसात करेगें चल कर अपने गाँव में 
दिल यह धड़का,साँसें बहकीं,मन पागल बौराया है
मचल रही हैं गाँव की गलियाँ आकर अपने पाँव में 
चल पीपल के छाँव मे......

कमला सिंह 'ज़ीनत'

Mujhko deewaron mein jad de
ya phir mujhko pagal kar de
aankhen meri suukh chuki hain
chal tu aankh mein aansu bhar de

Kamla Singh zeenat
वक्त के साथ नही करती मैं समझौता कोई
वक्त गर तोडना चाहे तो तोड़ दे मुझको

कमला सिंह 'ज़ीनत'


बहुत थकाती है यह शायरी भी उफ यारब
इसे उठा ले तू या मुझको मार दे पहले 

कमला सिंह 'ज़ीनत'


मिला जो अब के वह फाँसी उसे चढा दूँगी
वह जिन्दा रहता है ऐसे कि मर चुका हो कोई

कमला सिंह 'ज़ीनत'


न जाने कौन से मंजिल का वो मुसाफिर है
कभी ठहरता नहीं है कभी वो जाता नहीं 

कमला सिंह 'ज़ीनत'


तमाम मंजिलें उस बेवफा को मिल जायें
तमाम ठोकरें मेरे नसीब में हों शुमार

कमला सिंह 'ज़ीनत'


Woh is tarah se mujhe kah ke be wafa lauta
main chaah kar bhi use raaz daar kar na saki

Kamla Singh zeenat.