Sunday 31 May 2015

तुझे निहारती रहती हूँ लाजवाब है तू
मेरे हजार सवालों का इक जवाब है तू
जिंदगी इस तरह गुर्बत से निकाला है तुझे
मुस्कुराते हुए मुश्किल में भी ढाला है तुझे
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday 30 May 2015

ज़िंदगी के मोड़ पे 
 धोखा तुमसे 
मुक़द्दर था  मेरा 
-कमला सिंह 'ज़ीनत'
मरना भला मेरा 
सिसकने से 
मौत ही भली 
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

परवाज़ पे हूँ ऐ दिल मंजिल से न भटकाना
भटके जो मुसाफिर हैं घर लौट नहीं पाते
कहना है बुजुर्गों का दो कश्ती के बारे में
इक साथ सफर हर्गिज़ आसान नहीं होता
रिश्तों को निभाते हैं कुछ लोग ताज्जुब है
रिश्ते को निभाने में यह उम्र बहुत कम है
ना जाने कहाँ टूटे गफलत के जजीरे पर
कश्ती है भरोसे की ख्वाहिश का समंदर है
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 29 May 2015

तुम अपने जीने का मक़सद बता दो
बस अपना धूम होने का मचा दो
बयाबानों में कुछ पौधे लगा दो
किसी मुफलिस के दो बच्चे पढा दो
अगर हो दिल में तमन्ना स्वर्ग की चाहत
तो इस तरीके से जीवन निबाह देना तुम
न देना मंदिरो मस्जिद को एक भी रूपया
किसी ग़रीब की बेटी ब्याह देना तुम
अंधी है कमज़र्फ़ सियासत फर्क़ नहीं चंडालों को
मजबूरी ने तोड़ दिया है पत्थर तोड़ने वालों को
कमला सिंह 'ज़ीनत'
यूँ जन्नत में तुम घर अपना बनाओ
कुछ अपने तौर पे खुदको सजाओ
न दौलत काशी - काबे में लुटाओ
इन्हीं पैसों से मुफलिस को पढाओ
अंधी है कमज़र्फ़ सियासत फर्क़ नहीं चंडालों को
मजबूरी ने तोड़ दिया है पत्थर तोड़ने वालों को
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 28 May 2015

ग़रीब लोग खिलौने को क्यूँ ख़रीदेंगे
ग़रीब लोग खिलौने से कम नहीं होते
खिलौना बेचने वाले गरीबों की ये बस्ती है
यहाँ का बच्चा बच्चा होंट से सीटी बजाता है

खिलौने बेचने वालों मेरी बस्ती में मत आना
यहां बच्चे अमूमन जिन्दगी से खेल जाते हैं
दुआ
दुआ ये मेरी ऐ खुदा कीजियो ज़रा क़बूल
घर-घर सबके आंगना खिले करम का फूल
न जाने कौन सा चेहरा हमारा भा जाए
तुम्हें पसंद हो जो भी उतार कर रखलो
na jaane kaun sa chehra hamara bha jaaye
tumhen pasand ho jo bhi utaar kar rakh lo
kamla singh zeenat

Wednesday 27 May 2015

क्या फूल लगाएं वो माली भी मचलते हैं
मिट्टी के ख़राबी से कांटे ही निकलते हैं
डा.कमला सिंह ज़ीनत
खा जाते हैं मेढक तक चूहों को निगलते हैं
ये सांप के बच्चे हैं बस ज़हर उगलते हैं
डा.कमला सिंह ज़ीनत
मैं हूँ हिन्दू , तू है मुसलमां , हैं दोनों इंसान
रंग लहू का एक हमारा,एक ही है पहचान
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
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Monday 25 May 2015

मेरी एक ग़ज़ल 
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आग  खुद  में लगाये   हुए हैं 
दिल  में  उनको बसाये हुए हैं 

उसकी सरकार में इक सदी से 
अपने  सर  को  झुकाये हुए हैं 

जिसको होती नहीं मैं मयस्सर
मुझपे  तोहमत  लगाए  हुए  हैं  

हर सितम सह के भी ज़िंदगी का 
ग़म  में  भी  मुस्कुराये  हुए  हैं 

जो भी आता है उसके मुक़ाबिल 
उसको कद से गिराये हुए हैं 

उसकी चाहत में हम आज ज़ीनत 
अपना  सब  कुछ लुटाए हुए हैं 
----- कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 20 May 2015

ये इश्क़ इश्क़ है,इश्क़ इश्क़
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इश्क़ जो होए यार से जनम जनम तर जाए
इश्क़ की खुशबू में बसी दुल्हनिया घर जाए
इश्क़ उडाए होश जो छाप तिलक झड़ जाए
इश्क़ में डूबी बावली क्या-क्या न कर जाए
डा.कमला सिंह "ज़ीनत"
ये इश्क़, इश्क़ है, इश्क़ इश्क़
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यार बिना सब सूनापन हो ज़हर लगे संसार
तड़प तड़प कर आशिक़ मचले खुद पे करे प्रहार
इश्क़ न करदे इश्क़ को गूंगा इश्क़ है ये बेकार
इश्क़ में खाकी खाक़ न हो तो इश्क़ लगे व्यापार
डा.कमला सिंह "ज़ीनत"

Tuesday 19 May 2015

किस्सा मुख्तसर
______________
यदि मुझे
फिर आना पडे धरती पर
तो चाहूंगी बूंद बनूँ
तपती दोपहरी में
प्यासी गौरैया की चोंच पर टपकूं
और फिर
एक बूंद बनूँ
यह कविता नहीं है
_______________
मुझे भी पक्षियों से लगाव है
मेरी भी इच्छा है उनकी सेवा करूं
तप रही है धरती
तप रही हैं हवाएं भी
प्यास से व्याकुल हो जाती हूँ मैं भी
मेरे अंदर सेवा भाव है
मैं चाहती हूँ कुछ पुन्य करूं
पिछले एक सप्ताह से मैं
रख कर आ आती हूँ दाना और पानी
छत पे बनी शेड के नीचे
बहुत दुखी हूँ मैं
न तो दाने से एक दाना कम हुआ है
और न पानी ही
छत से आसमान ताक रही हूँ
हर तरफ साँय साँय है
कोई परिंदा नहीं है
कोई पक्षी नहीं है आस पास
केवल लैंडिंग
और टेकऑफ करते
हवाई जहाज उड़ रहे हैं
प्यास और प्यासों के बीच
पक्षी कहाँ हैं
कहाँ हैं ,कहाँ हैं पक्षी ।
फिर तेरी बात चली आई है
तुझमें कितनी अभी गहराई है
तेरे आने की धमक है शायद
फिर से काकुल मेरी लहराई है
हमारे सांचे में दिन रात ढल रहा है वो
जहाँ पुकारूं वहीं से निकल रहा है वो
अजीब खुशबू है हर्गिज़ बयां नहीं होगा
मैं चल रही हूँ मेरे साथ चल रहा है वो
वो ताज़े फूल का झूला था जिसमें झूल गई
न चाहा फिर भी दिलो जान से क़बूल गई
अजब हुआ ये असर मुझपे क्या बताएँ हम
किसी को याद ही रखने में खुदको भूल गई
कुछ इस तरह से मैं तुझमें तमाम हो जाऊँ
खुली हो आँख मगर जाहिरन मैं सो जाऊँ
मेरे वजूद पर साया हो तेरा पल - पल का
हमारे दिन तू चुरा ले कि शाम हो जाऊँ

Monday 18 May 2015

वो ताज़े फूल का झूला था जिसमें झूल गई
न चाहा फिर भी  दिलो जान से  क़बूल गई
अजब हुआ ये असर मुझपे क्या बताएँ हम
किसी को याद ही रखने में खुदको भूल गई

डा.कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 17 May 2015

यह कविता नहीं है
_______________
मुझे भी पक्षियों से लगाव है
मेरी भी इच्छा है उनकी सेवा करूं
तप रही है धरती
तप रही हैं हवाएं भी
प्यास से व्याकुल हो जाती हूँ मैं भी
मेरे अंदर सेवा भाव की इच्छा है
मैं चाहती हूँ कुछ पुन्य करूं
पिछले एक सप्ताह से मैं
रख कर आ आती हूँ दाना और पानी
छत पे बनी शेड के नीचे
बहुत दुखी हूँ मैं
न तो दाने से एक दाना कम हुआ है
और न पानी ही
छत से आसमान ताक रही हूँ
हर तरफ साँय साँय है
कोई परिंदा नहीं है
कोई पक्षी नहीं है आस पास
केवल लैंडिंग
और टेकऑफ करते
हवाई जहाज उड़ रहे हैं
प्यास और प्यासों के बीच
पक्षी कहाँ हैं
कहाँ हैं ,कहाँ हैं पक्षी ।
एक मूरत हो तुम भी
भगवान तो नहीं हो ?
बचपन से जिद्दी हूँ मैं
बहुत सारे खिलौने खोया है मैने
रोया है मैने ।
मेरे मोम दिल से चिपके सिक्के
सुनो
जा रहे हो न
तो जाओ
साथ लेते जाओ अपनी हर छाप
सुनो
यह मेरा दिल है
कोई छापाखाना नहीं ।
उस दिन को क्या कहूँ ?
काला दिन ?
या जिंदगी का एक हसीन पल
जब तुम मिले थे मुझसे
तुममे जो सबसे बडी खराबी है 
वह है
ज़रूरत से ज्यादा बोल जाना
और जो आदत मुझे नापसंद है
बदलाव जब तक नहीं लाओगे तुम
अपने अंदर
समझो यह अलगाव की नदी
दो पाटों के बीच गुज़रती रहेगी
हमेशा,हमेशा,हमेशा
-------कमला सिंह 'ज़ीनत'
नज़र हो आसमां पर चाह हो परवाज़ करने की
ये दिल में बात आ जाए तो पर तोला नहीं करते
जहाँ कमज़र्फ़ बैठे हों जहाँ तहजीब हो रूसवा
वहाँ बा-ज़र्फ़ शामिल हों भी तो बोला नहीं करते
किस्सा मुख्तसर
______________
यदि मुझे
फिर आना पडे धरती पर
तो चाहूंगी बूंद बनूँ
तपती दोपहरी में
प्यासी गौरैया की चोंच पर टपकूं
और फिर
एक बूंद बनूँ

Monday 11 May 2015

मेरी एक ग़ज़ल पेश है आपके हवाले 
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जीत हिस्से में तू लिख ले ,मुझे हारा कर दे 
एक   बेनूर  स्याह   टूटा   सितारा   कर  दे 

नाम लिख कर मेरा नफ़रत से मिटा दे ख़त से
मुझको क़िस्मत का मेरे दोस्त तू मारा कर दे 

तुम रहो मीठा ही अब ओस की  बूंदें  बनकर 
मेरी  आँखों के  समुन्दर  को  तू खारा कर दे 

ठोकरें  खाना  लिखा  है  मुझे  दर-दर  तौबा
थाम  कर  हाथ  मेरा  दोस्त  किनारा कर दे 

ऐ खुदा उसकी ही क़िस्मत में लिखी  जाऊं मैं 
मुझको  इस  दुनिया  में पैदा तू दुबारा कर दे  

तू  सलामत  रहे  ऐ  दोस्त  बलाओं  से  बचे 
रंजो-ग़म  जितने  हैं  अपना तू हमारा कर  दे 
------डॉ. कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 3 May 2015

हर इक मौसम मुझे पतझड लगे है
न  हो  दीवार  भी  तो  सर  लगे है
करूँ  मैं बात  उससे  भी  तो  कैसे
करे  वो  बात   तो  नश्तर  लगे  है
---कमला सिंह 'जीनत'