Thursday 24 September 2015

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है 
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अब मिलने-मिलाने का भी आसार नहीं है 
पहले  की  तरह  रास्ता  हमवार  नहीं   है 

ठोकर लगी तो हमको भी एहसास हो गया 
पत्थर  भी  मेरी  राह  का  बेकार  नहीं  है 

हम  हादसों  की  ज़द में  बराबर  खड़े  रहे 
थोड़ा भी  ज़िक्र  सुर्ख़ी-ऐ-अख़बार  नहीं  है 

है  आसमान  छत  मेरा आँगन  ज़मीन है 
इस  दरम्यान  कोई   भी  दीवार  नहीं  है 

अख्लाख़ की बिना पे हैं वह वक़्त के गाज़ी 
लड़ते   हैं  मगर  ज़ुंबिशे  तलवार  नहीं  है 

करता है जो भी 'ज़ीनत' दगा दूसरों के साथ 
उस आदमी  का  कोई भी  किरदार  नहीं  है 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 17 September 2015

जब तलक सांस है तब तक ही गिला है कोई
बाद मरने के भला खुद से मिला है कोई
एक पल भी न रूके छोड़ के सब दर निकले
हम भी औरों की तरह वक्त़ के नौकर निकले
तुम चले आओ ख़्यालों में 'ग़ज़ल' होने तक
फिक्र की झील में अल्फ़ाज़ कंवल होने तक
नज़्म ____खुद्दारी
बात इक चुभ गई
इस दिल में कई ज़ख्म बने
मैंने इस बात को 
सीने में ही तहबंद किया
आया जब भी तू मेरे पास
तो मुस्काई मैं
मुझको मालूम था
तू ज़ख्म का मरहम होगा
बाद उसके तो
मेरे ज़ख्म की रूस्वाई थी
बस इसी बात ने खुद्दार मेरी धड़कन को
आह करने न दिया
कोई तमाशा न किया
और हम
ज़ख्म की सूरत में यूं ही रिस्ते रहे
कोई मातम न किया
और न रंगत बदली
ज़िन्दगी काट दी
इक ज़ख्म हरा रखने में
आह इक बात ने
किस दर्जा मुझे मस्ख किया
दर्द ए दिल आह रे गुमनाम
तेरा ज़िक्र ही क्या
चल के अब देर हुई
शाम हुई शब जारी
सो गए ज़ख्म लिए
साथ लिए खुद्दारी

Wednesday 9 September 2015

आस का आसताना
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इश्क़ की तपिश
और तुम्हारे एहसास की खुशबू ने
मुझे अगरबत्ती बना दिया है
तुम्हारे आस का आसताना
जाने कबसे महका रही हूँ
कभी तो निकल जुनूँ की वहशत लपेटे
खाक होने से पहले
दीदार ए सनम मुबारक तो हो
हवा बहुत तेज़ है
सुलगन ज़ोरों पर है
आस का आसताना खुशबूदार है
खाक सजदे में है
ठंडी हो रही है
कुछ लम्हे और बस ।