Saturday 11 November 2017

तुझसे  किया  है  प्यार यही तो  कुसूर है 
इस  बात  पे भी  यार क़सम  से  गुरुर है 

रहती  हूँ  तेरी याद मेँ  मसरुफ़  रात दिन 
छाया  हुआ  है  मुझ पे  तेरा  ही सुरूर है 

क्या बात है की तुझमेँ ही रहती हूँ गुमशुदा 
तुझसे  कोई पुराना  सा  रिश्ता   ज़रूर है 

हर वक़्त जगमगाती हूँ उस रौशनी से मैं 
सूरज  है मेरा ,चाँद , तू  ही  मेरा   नूर है 

दीवाने पन को देख कर  हैरत में लोग हैं 
नफ़रत  का  देवता  भी  यहाँ   चूर-चूर है 

कहते  हैं जिसको  लोग पागल है बावला 
'ज़ीनत'  वही  तो मेरा  सनम बा-शऊर है 

---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 10 November 2017

प्यार मुहब्बत  ख़ुशियाँ जिस  पर यारों हमने वार दिया 
उस  ज़ालिम   ने   बेदर्दी  से   तन्हा  करके  मार  दिया 

उसकी  रूह   से  कोई   पूछे   वो   सच   बात  बताएगी 
जंगल  को  गुलज़ार  बना कर  मैंने  इक  संसार  दिया 

बीच लहर में जिस दिन कश्ती उसकी थी मजबूर बहुत 
मैंने  अपनी  तोड़  दी  कश्ती  और  उसे  पतवार  दिया 

हाय  रे  मेरी  क़िस्मत  कैसी  साजिश  तेरी  है ज़ालिम 
जब   भी जीत का मौक़ा आया जीत के बदले हार दिया 

'ज़ीनत' तुझसे क्या दुख रोती  सबका मालिक तू मौला 
साँसें  दी  हैं  शुक्र  है  तेरा  लेकिन  क्यों  बीमार   दिया 

----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 8 November 2017

एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
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मैं  ख़ता  करूँ  तो  ख़ता लिखो 
मैं  वफ़ा  करूँ  तो  वफ़ा  लिखो 

मेरी  आँख   देखो  भी  ग़ौर  से 
जो  मैं   डबडबाऊँ  दुआ  लिखो 

मेरी   ज़ुल्फ़  लहराए   नागिनी 
तो  कलम  उठा  के  हवा लिखो 

कहाँ  हम हों ,तुम हो पता नहीं 
इसे  लिखने  वाले जुआ लिखो 

मैंने  ज़ख्म  सारे   दिखा   दिए 
ऐ  तबीब  अब तो  दवा  लिखो 

जहाँ लिखना 'ज़ीनत' को फूल है 
उसे  शाख़   बिलकुल हरा लिखो 
---कमला सिंह 'ज़ीनत' 

Friday 3 November 2017

हाल   बेहतर   सुनाये  काफी  है 
वो   फ़क़त  मुस्कुराए  काफी  है 

मेरी  गज़लें   पढ़े , पढ़े   न   पढ़े
सिर्फ़  वो   गुनगुनाए   काफी  है 

उससे मुझको तलब नहीं कुछ भी 
मुझको  अपना  बताए  काफी  है  

वो    बरसता    रहे    ज़माने   में 
एक  पल  मुझ  पे  छाए काफी है 

नाम  मेरा  वो  जोड़  कर ख़ुद  में 
मेरा   रूतबा    बढाए   काफी   है 

उसको सोंचूं मैं रात -दिन 'ज़ीनत'
नींद    मेरी    उड़ाए    काफी   है 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday 16 October 2017

दिवाली
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मुझे वो दिवाली दोगे तुम ?
जहाँ बचपन की मेरी फुलझडी़
बिना छूटे 
मेरी फूँक के इंतजा़र में
मायूस पडी़ है ?
मुझे वो आंगन दिलाओगे तुम ?
जहाँ मेरी साँप लत्ती की टिकया
आधी अधूरी फूंफकार कर सोई पडी़ है
मेरा वो धरौंदा ही दिला सकते हो ?
जिसके सामने मेरे बाबा
पलथी मारे मुस्का रहे हों
और अम्मा टकटकी बाँधे
मुझे निहार रही हो
मुझे वो बताशे के गुड्डे
लाई की उजलाई
चाशनी की चिडि़या
मोम का बतख सब चाहिये
मुझे बचपन चाहिये
मुझे बस वो दिवाली चाहिये।
—कमला सिंह ‘ज़ीनत’

Saturday 9 September 2017

एक ग़ज़ल देखें 
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ज़ुल्म  हो  जब  भी  लड़ जाईये 
ख़ौफ़   बन   कर  उभर   जाईये 

हौसला    है   अग र  आप    में 
पार   दरिया   को   कर   जाईये 

इतनी  हिम्मत नहीं हो तो फिर 
इससे   बेहतर   है   मर   जाईये 

दुसरा    कोई    गुलशन    नहीं 
यह  चमन    है  निखर  जाईये 

कल  ज़माने  को  एहसास  हो 
छोड़  कर  कुछ  असर  जाईये 

'ज़ीनत'  जी   खूबसूरत  ग़ज़ल 
पढ़  के  दिल  में  उतर  जाईये 
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 30 August 2017

खु़दाया खै़र करे
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जब दिल के बंधन खुलते हैं
खुश्बू के रस रस घुलते हैं
तू याद बहुत ही आता है
अनजाने में तड़पाता है
तेरी यारा ऐसी लत लागी
मैं कब सोई और कब जागी
तू काहे मुझसे बैर करे
मेरे अंदर अंदर सैर करे
तेरा यार खु़दाया खै़र करे
तेरा यार खु़दाया खै़र करे।
__कमला सिंह "जी़नत"

Wednesday 23 August 2017

ग़ज़ल हाज़िर है 
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जो   ज़बानो   -ब्यान   वाले   हैं 
बस    वही   दास्तान   वाले   हैं 

बालों पर की ख़बर नहीं जिनको 
पूछिए    तो    उड़ान   वाले    हैं 

शैख़  शजरा  दिखा  के कहता है 
हम  ही  बस  आन बान  वाले हैं 

बोझ  अपना भी जो उठा न सके 
फ़क्र    है   खानदान    वाले   हैं 

जो   गरीबों   का   खून  पीते थे 
आज   वह   दरम्यान   वाले  हैं 

'ज़ीनत'  सुन  रंगो-बू-जुदागाना 
अपनी  अपनी   दूकान  वाले हैं 
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 17 August 2017

मेरी एक ग़ज़ल देखें 
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आग दिल में लगाने से क्या फ़ायदा 
अपना ही घर जलाने से क्या फ़ायदा 

जब परिंदे ना चहकेंगे कल शाख पर 
इस चमन को बचाने से क्या फ़ायदा 

इल्म के साथ हासिल न हो अक्ल तो 
बे -वजह  फैज़ पाने से  क्या फ़ायदा 

आज तो  हम तुम्हारे मुक़ाबिल नहीं 
अब  हमें  आज़माने से क्या  फ़ायदा  

आँख  बरसे   नहीं , रूह  तड़पे  नहीं 
यूँ ग़ज़ल गुनगुनाने से क्या फ़ायदा 

बेरुखी ऐसी  'ज़ीनत' उन आँखों में है 
बेसबब आने- जाने  से क्या फ़ायदा 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 15 August 2017

एक ग़ज़ल देखें 
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क़िस्मत का मेरे यारों जब टूटा सितारा था 
इक  मेरे  सहारे  को  बस  मेरा  खुदारा था 

गर्दिश ने जो घेरा तो कुछ काम  नहीं आया 
कहने  के लिए यूँ तो  कश्ती  का सहारा था 

हम  सब्र से  बैठे  थे चीख़ा ना  गुज़ारिश की 
सर काट के ज़ालिम भी मज़लूम से हारा था 

हर शब् को उतरते थे हम पर ही कई आफ़त 
मुश्किल  की  घटाएँ  थीं घर एक हमारा था 

हर हाल में बस 'ज़ीनत ' हम ज़ेर रहे दम तक 
कोई   ना  सहारा  था  ,कोई  ना  हमारा  था 
----कमला सिंह ' ज़ीनत'

Saturday 8 July 2017

एक ग़ज़ल 
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जब  वो   मेरी  नज़र  हो  गया 
खुद-ब-खुद मोअत्तबर हो गया 

एक   खाली   मकाँ    हम   रहे 
वो  दिलो  जां  ज़िगर  हो  गया 

अब   कोई  और  चौखट   नहीं
आख़री   मेरा   दर   हो   गया  

धुप   आती   नहीं    राह     में 
राह   का   वो  शजर  हो  गया 

रफ़्ता-  रफ़्ता   मेरी   चाह   में 
कितना  वो  बालातर  हो  गया  

दिल का 'ज़ीनत' वो है बादशाह 
दौलते   मालो  ज़र   हो   गया 

---कमला सिंह 'ज़ीनत '

Monday 3 July 2017

एक ग़ज़ल देखें 
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आग  हरसू  लगाए  फिरते  हो 
बादलों   को   डराए  फिरते  हो 

कौन  जाने की कब ख़ुदा बदले 
आजकल  बुत  उठाए फिरते हो 

कितने  मासूम  खा  गए धोका 
ऐसी   सूरत  बनाए   फिरते  हो 

अंधे   बहरों  के   बीच  ऐ  साधू 
कौन  सा  धुन सुनाए फिरते हो 

अपनी  मुट्ठी में  आँधियाँ  लेकर 
रौशनी  को   बुझाए   फिरते  हो 

'ज़ीनत' तो पर्दा कर गयी कब की 
लाश  किसकी  उठाए  फिरते  हो 
---कमला सिंह 'ज़ीनत '

Friday 30 June 2017

एक ग़ज़ल आपके हवाले 
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उस  दिन  पगले  हाथ  से  तेरे छूट गए 
शीशे   जैसा   गिरकर   देखो   टूट  गए 

तेरे   मेरे   जो   भी   रिश्ते   थे    कोमल 
गर्म   हवा   के  चलते  ही  सब रूठ  गए 

प्यास लगी थी मुझको लेकिन सच मानो 
कितनी मुश्किल से मुझ तक दो घूँट गए 

राह  हमारी  बिलकुल  ही  सुनसान  रही 
रहज़न   आये    यादें    तेरी    लूट   गए 

चलते-  चलते   , धीरे -  धीरे   रस्ते  पर 
ग़म   के   सारे    छाले   मेरे   फूट   गए 

क्या अब जीना 'ज़ीनत' बोलो घुट-घुट कर 
ओखल  में  हम  साँसें  सारी   कूट   गए 
---कमला सिंह 'ज़ीनत '

Tuesday 27 June 2017

एक ग़ज़ल आपके हवाले 
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एक सजदा वही  क़याम हमारी  नज़र  में  है 
अब   तक  वही  इमाम   हमारी  नज़र  में है 

मसरूफ हम है जिसके तआक्कुब में रात दिन 
ऐसा    ही   एक   नाम   हमारी   नज़र  में है 

देखोगे तुम तो  शाम-ए- अवध  भूल जाओगे 
इतनी   हसीन    शाम   हमारी   नज़र  में  है 

दीदार  जिसकी  करते थे  हम ताज की तरह 
खुश- रंग ,  दरो-बाम ,  हमारी  नज़र  में  है 

हर   वक़्त   जो   हमारी   हदें   खींचते   रहे 
उनका   भी  एहतराम   हमारी  नज़र  में  है 

सब  कुछ  फ़ना है 'ज़ीनत 'यादों की भीड़ में 
बस  इक शिकस्ता -जाम  हमारी नज़र में है 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत '

Wednesday 21 June 2017

एक ग़ज़ल देखें 
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अजीब  लोग  हैं  तेवर   बदलते  रहते हैं 
दरो - दीवार  कभी  घर  बदलते  रहते हैं 

ज़मीन प्यारी है  इतनी उड़ान की  ख़ातिर 
परिंदे  रोज़  अलग  पर  बदलते  रहते हैं 

लिखी है खानह बदोशी हमारी क़िस्मत में 
क़दम-क़दम पे यह मंज़र बदलते रहते  हैं 

तबीब  आप  परेशां न हों खुदा  की  क़सम 
अजीब  ज़ख़्म  हैं  नश्तर  बदलते रहते हैं 

कि अब  तो  नेज़े भी बे-फिक्र हो  के बैठेंगे 
शहीद  होने  को  यह सर  बदलते रहते हैं 

ख़ुदा को भूल के ऐ 'ज़ीनत' जी मुसीबत में 
अंगुठियों  के  ही  पत्थर  बदलते  रहते हैं 
---कमला सिंह 'ज़ीनत '

Wednesday 7 June 2017

मेरी ग़ज़ल मेरी बुक 'शादमानी के फूल से'
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ऐ  ख़ुदा  बोल ,मेरी आँख में  पानी  क्यूँ है 
खूबसूरत  तेरी  दुनियाँ  है तो फ़ानी क्यूँ है 

क्यूँ  सवालों के जवाबात न हो तो  भी सही 
उसकी हर बात में हर बात का मानी क्यूँ है 

मेरे दिल में  भी एक सैलाब गुज़र जाता है 
सिर्फ़  दरिया  में बज़ाहिर ये रवानी क्यूँ है 

रेत  की  ढेर  सी  ढह  जायेंगी  सब दीवारें 
वक़्त बतलाये तो जानूँ की जवानी  क्यूँ है 

चाँद  पे दुःख लिए  होता  नहीं  कोई गरीब 
फिर ये दुनियाँ में कहो ऐसी कहानी क्यूँ है 

बोल 'ज़ीनत'  ये हैं दुनियाँ सभी रंग बेनूर 
ऐसी  सूरत है तो ये दुनियाँ  रूमानी क्यूँ है 
----- कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 30 May 2017

एक ग़ज़ल देखें 
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खूबसूरत   कोई     रिश्ता   रखिये 
कुछ  तो इंसानियत  ज़िंदा रखिये 

वक़्त   के   साथ   सब  फ़ना  होंगे 
खुद को जैसे भी हो लिखता रखिये 

लोग  आयेंगे  कई  कल  के  साथ 
मख़मली  खुशनुमा  रिश्ता रखिये 

रूह  निकलेगी  कब  किसे  मालूम 
हो   सके   कारवाँ    चलता  रखिये 

महफ़िलों  में  सुख़नवरों  के  साथ 
आप  भी  खुद  को दिखता रखिये 

शोख़  कलियों में आप भी 'ज़ीनत'
ज़िंदगी  भर  यूँ  ही महका रखिये 

----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 17 May 2017

मेरी 'माँ'
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दुनिया में उससे सुंदर
मुखडा़ न कोई देखा
दुनिया में उससे अच्छी
तस्वीर भी न पाई
ये मानना था मेरा
शायद हो मेरी चाहत
शायद मेरी मुहब्बत
या मेरे देखने का
अन्दाज़ प्यार का हो
पर ये तो बिल्कुल सच है
ऐसी ही कुछ नज़र है
ऐ 'माँ' तेरा असर है।
****कमला सिंह "जी़नत"

Saturday 6 May 2017

मौन संवाद
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उम्मीद का घोडा़
जब घायल होता है
सवार के मन में
खोट उतर आता है
घोडा़ लाख घायल हो
दौड़ जारी रखना ही चाहिये उसे
ज़ख़्मी घोडे़ का सवार
बेमरव्वत बन सकता है
बेदिल निकल सकता है
घोडे़ और सवार के बीच
पुचकार का संवाद
स्वस्थ रहने तक
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday 15 April 2017

कहीं दरिया की मौजें और धारे हम हुए 
अगर सैलाब आए तो किनारे हम हुए 
अमावस की रेदा में चाँद जब परदा हुआ 
अंधेरे को मिटाकर तब सितारे हम हुए 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 9 April 2017

न्वान-मेरे पहलु से (नज़्म) मेरी पुस्तक 'एक अमृता और से )
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मेरे पहलु से न जाओ 
अभी रुक जाओ न 
बस ज़रा दम तो रुको 
कुछ ज़रा मेरी सुनो 
कुछ सिमट जाओ मेरी रूह के 
अंदर अंदर 
कुछ मेरे टाँके गिनों 
कुछ मेरी आह पढ़ो 
कुछ मेरे ज़ख्म पे मरहम के रखो फाहे तुम 
मेरे बिस्तर पर तड़पती हुई सलवट की क़सम 
चांदनी रात की बेचैन दुहाई तुझको 
मेरी बाहों के हिसारों के मचलते 'जुगनू'
आओ इमरोज़,लिखूं आज तेरे पंखों पर
आओ मुट्ठी में तेरी रौशनी भर लूँ सारे 
मेरे होठों पे तड़पते हुए सहरा की प्यास 
मुझको क्या हो गया ,ये बात चलो समझा दो 
अपनी यादों के मराहिल से मुझे बहला दो 
आज सूरज की तरह मुझपे ही ढल जाओ न 
मेरे पहलु से ना जाओ अभी रुक जाओ न !  

Saturday 8 April 2017

नज़्म (अमीर बना दो )
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सोने की नदी सा बहता है
ज़र्रा-ज़र्रा बटोर लेने की चाह में
हर रोज़ बैठती हूँ किनारे पर
चाहती हूँ छान लूँ तुम्हें तमाम
झीने आँचल को सुनहले पानी में डूबोकर
बैठी रहती हूँ मैं हर रोज़
सोना-सोना लिपट जाओ आँचल में मेरे
बना दो मुझे भी अमीर
एक चाल देखना और महसूसना चाहूंगी
अमीरी की चाल
सीना ताने निकलना है मुझे भी
दुनिया को बौना होता देखना है
मेरी हिम्मत बढ़ा दो
मेरी नींद उड़ा दो दो
मुझे अमीर बना दो
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 7 April 2017

एक ग़ज़ल हाज़िर है 
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जब  सितम  मेरे नाम आ गए 
ज़ख्मे  दिल  मेरे काम आ गए 

ख़ुश्क   होटों   ने  आवाज़  दी 
शैख़  खुद  लेके जाम  आ गए 

ज़ुल्म रावण का जब बढ़ गया 
काफिला  लेके  राम   आ  गए 

सुब्ह   देखी   नहीं   उम्र   भर 
आप  भी  लेके  शाम  आ गए 

बाद्शाहों   ने    की    साज़िशें 
हासिये   पे  गुलाम  आ   गए 

चलिए  'ज़ीनत'  करेँ   गुफ़्तगू 
आपके  हम  कलाम  आ  गए 

----कमला सिंह 'ज़ीनत' 

Wednesday 5 April 2017

कठिन है राह ये शाइस्तगी ज़रूरी है
जुनूने इश्क़ में पाकीज़गी ज़रूरी है
नज़र जो आये नज़र देखिये उसे जी भर
हर एक लम्हां मगर तिश्नगी ज़रूरी है
खुदा की ज़ात से या बंदगी किसी की हो
निभाना शर्त है वाबस्तगी ज़रूरी है
अंधेरा और बढ़ेगा यहाँ लम्हां-लम्हां
हर एक सिम्त अभी रौशनी ज़रूरी है
खुद अपनी ज़ात ही जब बोझ की सूरत लौटे
तो ऎसे हाल में फिर ख़ुदकुशी ज़रूरी है
कभी तो गमलों में पानी भी दिया कर 'ज़ीनत'
गुलों के वास्ते कुछ ताज़गी ज़रूरी है
----कमला सिंह 'ज़ीनत

Saturday 1 April 2017

ऐब कितना  तुम्हारा ढँकते हैं
हम  तेरी  चाह  में  भटकते हैं

तपते एहसास की पहाडी़ पर
मुर्दा  चट्टान  सा  चटख़ते हैं

धीरे  धीरे  पिघल  रहें  हैं  हम
जाने किस ओर को सरकते है

दर्द का इक खींचाव है  रुख़ पर
हम कहाँ अब कहीं भी हँसते हैं

कोई मौसम नहीं है इनके लिये
ये  अजब  आँख  हैं  बरसते हैं

ज़ख़्म भी  तो  रहम  नहीं करते
रात दिन ये भी तो  सिसकते हैं

सुनके जी़नत की बात ऐ साहिब
बोलिये  क्यूँ   भला  भड़कते  हैं

----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 30 March 2017

एक प्रयास 
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संग में आप हम तो सर में रहे 
आप अखबार हम ख़बर में रहे 

हमने तो छोड़ दिया बस्ती तक
बस फ़क़त आप ही नगर में रहे 

आप   बारूद  की   खुदाई    थे 
हम तो  सहमे हुए  से डर में रहे 

आपके  नाम  की   चिंगारी  थी 
 और हम मुफ़लिसी के खर में रहे 

जुल्म की आँधियों में गुम तुम थे 
हम  भरी  आँख लिए तर में  रहे

पूछते  क्यूँ  हैं  हाल 'ज़ीनत'  का 
उम्र  भर हम तो दर-ब-दर में  रहे  

----कमला  सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 29 March 2017

शायरी   हो  ना   मेरी  खूब  तो  पानी   लिख  दे 
या तो फिर अहल-ऐ-कलम मुझको ज्ञानी लिख दे 

शेर   उला   मैं   कहे   देती   हूँ  ले   अहले  फ़न 
तू  है  फ़नकार  तो फिर मिसरा-ऐ-सानी लिख दे 

लफ्ज़  दर  लफ्ज़  सूना  देती  हूँ अपने ख़ुद को 
लफ्ज़   दर  लफ्ज़  कोई  मेरी  कहानी  लिख दे 

पेंच   ही  पेंच  बिखेरा   है  हर  एक  मिसरे  में 
होश  मंदी  है  अगर  तुझमेँ   तो  पानी लिख दे 

तेरा  खुद्दार  क़लम   है  तो   ऐ  आक़िल   दौरां 
पूरी  दुनियाँ  को  तू  ईमान  से  फ़ानी  लिख दें 

ग़ौर  से  सुन  ले  तू 'ज़ीनत' को  ज़रा  देर तलक 
बा शऊरी   है   अगर  मुझमे  ज़बानी  लिख   दे 

-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 8 February 2017

 एक ग़ज़ल 
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 आज खुद को किताब करने दे 
 ज़िन्दगी का हिसाब करने दे 

उम्र गुज़री है है पैचो-ख़म में बहुत 
खुद से खुद को ख़िताब करने दे 

रफ्ता-रफ्ता चुना है मुश्किल से 
खुद को अब लाजवाब करने दे 

शाखे हसरत पे जो हैं कुम्हलाए 
उन गुलों को गुलाब करने दे 

वक़्त के साथ फुट जाएंगे 
ज़ख़्में दिल है हुआब करने दे 

यूँ तो ज़ीनत नहीं मयस्सर वो 
फिर भी आँखों में ख्वाब करने दे 

----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 31 January 2017

ज़मीं   से  शम्स  कभी  जो   क़रीबतर  होगा 
सुलगती  धूप  में  जलता  हुआ  नगर  होगा 

अलामतें  जो  क़यामत  की   शक्ल  ले  लेंगी 
ज़मीं  को  चाटता  फिरता  हुआ  बशर  होगा 

वह  दिन  भी आयेगा इक दिन ज़रूर आयेगा 
रहेगा  न  साया  कोई  और   न  शजर  होगा  

लरज़-लरज़  के ज़मीं पर गिरेगी  सारी उम्मीद 
किसी  की दुआ में न हरगिज़ कोई असर होगा 

फ़िजां  में   ज़हर  भरा   होगा  आग  बरसेगी 
लहुलहान   तड़पता     हुआ    समर    होगा 

वह  जिसने  'ज़ीनत'  दुनिया  तेरी बसायी है 
उसी  की  नज़र  परिंदों  का  बालो -पर  होगा 

---कमला सिंह 'ज़ीनत'
तुझसे  किया  है  प्यार यही तो  कुसूर है 
इस  बात  पे भी  यार क़सम  से  गुरुर है 

रहती  हूँ  तेरी याद मेँ  मसरुफ़  रात दिन 
छाया  हुआ  है  मुझ पे  तेरा  ही सुरूर है 

क्या बात है की तुझमेँ ही रहती हूँ गुमशुदा 
तुझसे  कोई पुराना  सा  रिश्ता   ज़रूर है 

हर वक़्त जगमगाती हूँ उस रौशनी से मैं 
सूरज  है मेरा ,चाँद , तू  ही  मेरा   नूर है 

दीवाने पन को देख कर  हैरत में लोग हैं 
नफ़रत  का  देवता  भी  यहाँ   चूर-चूर है 

कहते  हैं जिसको  लोग पागल है बावला 
'ज़ीनत'  वही  तो मेरा  सनम बा-शऊर है 

---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday 30 January 2017

तुम   मेरे  आफ़ताब   ही   रहना 
एक   ताज़ा   गुलाब   ही   रहना 

तुझको   सर  आँख  पे  बैठाऊँगी 
बन  के  आली  जनाब  ही  रहना 

अपनी  आँखों  में  तुझको रखूंगी 
ख़्वाब  हो  तुम  ख़्वाब  ही  रहना 

सर्द  पड़   जाए  ना  ख़ुमार  कभी 
उम्र   भर  तुम  शराब  ही  रहना 

बंद  रखना  मुझे  क़यामत  तक 
दिल  की बस्ती का बाब  ही रहना 
  
गर    ज़माना    सवालकर   बैठे 
तुम   हमारा   जवाब  ही   रहना 

प्यास 'ज़ीनत' की बुझ न पाए कभी 
खुश्क  सहरा  सुराब   ही   रहना 
----कमल सिंह 'ज़ीनत'