Thursday 26 February 2015

कल की चिंता
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पत्तों को देख रही हूँ झड़ते हुए
मौसम का बदलाव है
नये पत्ते आयेंगे कल
पेड़ यही रहेगा
जडो़ं के आसपास कुछ दीमक आ गये हैं
चिंता बस इसी बात की है ।

Saturday 21 February 2015

मैं सबसे पहले लहजा तोलती हूँ
फिर उसके बाद ही कुछ बोलती हूँ
रहे लहजे में मीठे पन की खु़शबू
ज़बाँ को धीरे - धीरे खोलती हूँ
टूट जाता कहीं बिखर जाता
जे़हन से मेरे तो उतर जाता
याद आता नहीं दुबारा कभी
मार देता मुझे या मर जाता
सबसे आला मेरा मालिक आले से भी आलों में
देता है दिन रात मुसर्रत सब्रो सुकून के प्यालों में
कैसे सता पायेंगी बोलो इस दुनिया की बद रुहें
मेरे हक़ की भी तो दुआ है पत्थर तोड़ने वालों में
यही है आरजू़ दिल की यही दिल का फ़साना है
उसी बचपन की यादों को मुझे फिर से सजाना है
खुदाया जि़ंन्दगी पिछली मुझे लौटा दुआओं से
मुझे है दौड़ना जी भर मुझे चरखी़ नचाना है
डा.कमला सिंह जी़नत
अभी तक गाँव से अपना वही रिश्ता पुराना है
उसी मक़तब से पढ़कर फिर उन्हीं खेतों में जाना है
उन नन्हें पाँव से चुप - चाप जाकर नन्हें हाथों से
कभी तितली पकड़ना है कभी तितली उडा़ना है
डा.कमला सिंह जी़नत
ख़्याले यार में जिस दम तेरी सूरत उतरती है
कोई पगली तुम्हारे नाम से बनती सँवरती है
तुम्हारी याद आते ही लपक कर चूम आती है
तुम्हारे गाँव से जो रेल की पटरी गुज़रती है
डा.कमला सिंह 'ज़ीनत'
यूँ सारा ग़म भुलाना चाहती हूँ
वही गुज़रा ज़माना चाहती हूँ
कहीं से जि़ंन्दगी बस्ता मेरा दे
मैं फि़र स्कूल जाना चाहती हूँ
बेशर्मी का चोला ओढे़, खु़द पे जो इतराता है
दुनिया से शर्मिंदा होकर, अपने मुँह की खाता है
ढाँप ले चेहरा,शुतुरमुर्ग़ जो,फिर भी सच तो सच ही है
जिसका झोला फटा हुआ हो खा़ली घर तक आता है
अजीब ज़ख़्म है मरहम है और मुक़द्दर है
फ़फो़ला फूटता रहता है बारी- बारी से
सहेज आती हूँ हर रोज़ मैं भरोसे की ईंट
भरोसा टूटता रहता है बारी - बारी से
----डा.कमला सिंह "ज़ीनत "