Sunday 31 August 2014

एक अमृता और
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यह तस्वीर किसकी है ?
अमृता की
वह कौन थी ?
एक लेखिका
क्या लिखती थी ?
दिल की आवाज़
क्या क्या लिखा इसने ?
यह लो उसकी सारी किताबें पढो़
अमृता को समझना और समझाना
किसी के बस में नहीं है
अमृता अगर सवाल हो तो
जवाब उसका केवल 'इमरोज़' ही है
पढो़ अमृता को
वक्त दो 'अमृता' के लिये
जानो,समझो,परखो,और देखो,महसूसो
अमृता को
अमृता वह अनसुलझी दास्तान है जिसे खुद अमृता भी ब्यान नहीं कर पायी ।
बहुत कुछ अधुरा रह गया और किस्सा गो सो गया ।
हाँ तो तुम अमृता को पढ़ना चाहोगे?
बैठो मेरे क़रीब
ज़रा शांत रहना अमृता को शोर पसंद नहीं है ।
चलो पहले इमरोज़ को जानो
इमरोज़ को समझो
इमरोज़ की कुछ नज़में सुनो
घाँस के मैदान से लेकर
पीले खुश्बूदार पेडो़ के नीचे बैठे दो एहसासों के मिलन की खा़मोशियाँ सुनो
एक जीवन गाथा है ये ।
लो अब कि़ताबें पढो़
लफ्ज़ - लफ्ज़ को जी जाओ
फिर उसके बाद पहुँचना
इस तस्वीर तक
और फिर पूछने की कोई वजह नहीं होगी तुम्हारे पास
लो चाय पीयो शाम होने वाली है
मुझे क्यूँ देख रहे हो ?
फिर वही सवाल तो नहीं, मैं कौन ?
हा हा हा .......
पहले अमृता को पढ़ लो
बाद मुझे और मेरे.. इम्म्...को समझना
अच्छा जाओ अजनबी रात काफी हो चली है
फिर कभी मिलना तो सवाल मत करना मैं कौन ?
यह तस्वीर किसकी है ?
शुभ रात्रि ,शब्बखै़र
----कमला सिंह 'जी़नत'
एक अमृता और
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मेरे पहलू से न जाओ
अभी रुक जाओ न 
बस ज़रा दम तो रुको 
कुछ ज़रा अपनी कहो
कुछ ज़रा मेरी सुनो
कुछ सिमट जाओ मेरे रूह के
अंदर ……अंदर
कुछ मेरे टाँके गिनो
कुछ मेरी आह पढ़ो
कुछ मेरे ज़ख़्म पे मरहम के रखो फाहे तुम
मेरी बिस्तर की तड़पते हुए सलवट की क़सम
चाँदनी रात की बेचैन दुहाई तुझको
मेरी बाहों के हिसारों के मचलते 'जुगनू'
आओ 'इमरोज़' लिखूँ आज तेरे पंखों पर
आओ मुट्ठी में
तेरी रोशनी भर लूँ सारे
मेरे होठों पे भटकते हुए सहरा की प्यास मुझको क्या हो गया
यह बात चलो समझा दो
अपनी यादों के मराहिल से मुझे बहला दो
आज सूरज की तरह मुझपे ही ढल जाओ न
मेरे पहलू से ना जाओ अभी रुक जाओ न।
-------------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 28 August 2014

एक अमृता और 
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सुनो इमरोज़। 
कई ख़्याल 
मेरे दिलो दिमाग़ में चलते फिरते रहते हैं 
सोचा कि तुम्हें आज कह सुनाऊँ 
सुनो न   ....... 
इस बदरंग सी ज़िंदगी में तुमने 
अपनी शायरी की कूची से 
सारे रंग भर दिए 
किसमें  ??
हा ..हा ..हा 
अजीब हो तुम भी न
मुझमें न और किसमें
मैं अपनी और तुम्हारी बात कर रही हूँ
हाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ आपनी बात  
मैं वो नहीं कि मेरा नाम 
सबकी सदाओं की मेहराब बने
मैं वो सुर्खी भी नहीं 
जो माथे-माथे चन्दन बनी फिरे
सही कहा न मैंने  । 
उफ़्फ़
तुम तो रूठ ही गए 
मरे नसीब , मेरे हबीब
तुमने तो मेरे जीवन को 
या यूँ कहूँ कि एक तपते हुए सहरा को
ठंडी हवाओं के झोंकों से 
तर कर दिया है
खुश्क काँटों को सींच सींच कर 
अमृत बेल बना दिया है
तुमने हाँ तुमने
हर शब एक नयी हयात बख़्शी है
सुनो  .... 
एक बात कहूँ  ?
तुमने कोई गलती तो नहीं की न 
एक पत्थर को तराश कर ?
अपने मन के मंदिर की देवी बना लिया तुमने मुझे
तराशने,निखा़रने और सजाने में  
तुमने अपना क़तरा क़तरा झोंक दिया उफ़्फ़
आज ज़ेहन में इस बात की हलचल हुई
और ज़बान तक ये आ गयी
इसीलिए कहा 
नाराज़ नहीं हो न ?
होना भी मत ।
किससे  कहूँ ,किससे बोलूँ सिवा तुम्हारे
कौन है मेरा जो मुझे तुम्हारी तरह सुने? 
ये तस्वीर देख रहे हो ?
गौ़र से देखो इस वीराने को
यहाँ एक मायूस सी रूह का बसेरा था 
बेदम बेजान रुह का 
लेकिन तुमने तो चुपके से दस्तक देकर 
इस वीराने को आबाद कर दिया 
गुलजा़र कर दिया 
इक हलचल सी मचा दी तुमने
उफ़्फ़
लाओ अब सिगरेट सुलगाओ 
हर एक कश के साथ खींच लूँ 
तुम्हारे हर एक एहसास को अपने अंदर 
चुप क्यों हो ?
कुछ बोलो न 
अच्छा देखो
धुँए से बनते हुए इस छल्ले को देखो
ऐसी ही है हमारी ज़िंदगी 
एक दिन मैं भी लुप्त हो जाउँगी 
इस धुँए की तरह
हमेशा हमेशा के लिए मेरे इमरोज़ ।
चलो अब कुछ तुम कहो
कुछ तुम सुनाओ 
बोलो न इमरोज़ ।
--कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक अमृता और 
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सिगरेट कहाँ है इमरोज़ ?
सुलगाओ न 
सुनो ,दो सुलगाना 
एक मेरे लिए  और दूसरा खुद के  लिए 
आओ बैठो मेरे पास 
कुछ अपनी कहें, कुछ तुम्हारी सुनें  
दुनिया का दिल बहुत जल चुका  
अब अपना दिल जलाएं
क्या हुआ  … ?
पता है इमरोज़  .... यह धुआँ देखो 
ज़रा गौर से देखो इसे, 
विलीन होता देखो इसे 
ऊपर की ओर  
यह मैं हूँ  …… देखो न 
जो ऊपर चली जा रही है 
अरे वाह ! ये मेरा भी आखिरी ही  कश है 
और तुम्हारा भी  … 
ये भी एक इत्तेफ़ाक़ ही है
हा हा हा हा  ....  
सब कुछ धुआँ धुआँ   धुआँ धुआँ … 
    
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 22 August 2014

अमृता पूरी हुयी
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नहीं अभी नहीं
कुछ कहानी अधूरी है
कुछ बाकी है क़लम में स्याही
कुछ पन्ने अभी भी कँवारे हैं
कुछ शब्दों को देनी है ताक़त
कुछ और अनकही मेरे अंदर है
जि़द करो
मैं जानती हूँ तुम क्या चाहते हो
तुम्हें मुझसे ज़्यादा कौन जानेगा
तुम से ज़्यादा आज मेरा अपना
कोई भी तो नहीं ?
थोड़ा समय और दो
थोडी़ हिम्मत और बढा़ओ मेरी
कुछ पृष्ठों पे अल्फा़जो़ की मीनाकारी
अभी बाकी़ है
सो जाऊँगी
सो जाऊँगी 'इमरोज़'
समय दो समय दो
काम पूरा होते ही सो जाऊँगी मैं
गहरी नींद
फिर सोने देना
अपनी अमृता को जी भर
खू़ब खू़ब खू़ब
काम अभी बाकी़ है
जैसे तुमने अपनी अमृता को
कभी अधूरा नहीं रखा
बस वैसे ही मैं 'अमृता' को
अधूरा छोड़ना नहीं चाहती
'इमरोज़' बाहें खोलो
'अमृता' पूरी हुयी
'अमृता' पूरी हुयी
अब सोना चाहती है तुम्हारी 'अमृता'
सदा के लिये
हमेशा हमेशा के लिये
तुम्हारी आगोश में
सुकून की नींद
इमरोज़ बाहें खोलो



कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 21 August 2014

सुन रहे हो इमरोज़ _____________ तुम बस तुम हो मेरी क़लम में मेरे एहसास में मेरी जुस्तजू में मेरी आरजू़ में मेरे एक एक शब्द में मेरी एक एक पंक्ति में मेरी इबादत में मेरे सजदे में मेरी हुनर के गोशे गोशे में हर कहानी में बस तुम हो मेरे हर ब्यान में जि़क्र है तुम्हारा मेरे नाम के साथ ही या कहो तुम्हारे नाम के साथ साथ हमारा और तुम्हारा इक अटूट बंधन है न मिटने वाली एबारत है न ख़त्म होने वाली कहानी है इक सिलसिला सा है हम में इक सिलसिला सा है तुम में जनूनी हूँ मैं थोडी़ जि़द्दी भी लेकिन तुम्हारे लिये केवल सुलझी ,सौम्य ,शांत 'अमृता ' कल की कहानी अभी अधूरी है लिखूँगी क्या नाम दूँ सोचा नहीं है अभी कहाँ अन्त करुँ तय नहीं किया है सुन रहे हो न 'इमरोज़' सो गये क्या ? तुम्हारी 'अमृता 'तुमसे ही मुखा़तिब है । कमला सिंह 'ज़ीनत'
Chat Conversation End

Wednesday 20 August 2014

चार मिसरे बतौर ए खा़स
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तेरे गुलशन में चहकने से ही दिल भरता है
बुलबुले चमने अदब चुप तेरी दुखदाई है
तू ही इज़्ज़त है सलामत है तुझी से ये बहार
तू नही है तो चमन वालों की रुसवाई है
____________कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 19 August 2014

मेरी प्रतिनिधि रचना और चर्चित ग़ज़ल जो बहुत पसंद की गयी, हाज़िर है दोस्तों 
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आईना   वो  है और सूरत मैं हूँ 
उसकी   दिन रात  ज़रूरत मैं हूँ 

दिल तो उसका है एक मंदिर सा 
उस दिले ख़ाना  की मूरत  मैं हूँ 

उसमे बसती हूँ मैं खुश्बू की तरह 
उसके  हर हाल की फितरत मैं हूँ 

सारे  अरमान उसके  पुरे किये 
खुद ही  इस बात पे  हैरत मैं हूँ 

नाम  उसका जुड़ा है  मेरे साथ 
इश्क़े  मशूहर की शोहरत  मैं हूँ 

वो  तलबगार  है  'ज़ीनत'  तेरा 
ख़्वाहिशें दिल है वो,हसरत मैं हूँ 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 17 August 2014

कलियुग में अब मचा पडा़ है देखो हाहाकार
ऐसे में ओ कृष्ण हमारे फिर से लो अवतार
चीर बचाना मुश्किल है अब निर्लज है संसार
करो हमारी रक्षा हेतु असुरों का संहार
--कमला सिंह 'ज़ीनत

Saturday 16 August 2014

कोई याद न आये
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आज घर में मेरे बहुत सारे लोग जमे हैं
सभी के बीच मैं
व्यस्त ,व्यस्त ,व्यस्त
आज कुछ भी याद नहीं
कुछ भी नहीं
जी हलकान था
लेकिन अब
हलका लग रहा है
मेरी यादाश्त खो चुकी है
अब चाहती हूँ मैं
भीड़ ,भीड़ ,भीड़
और बीच में मैं
और मेरी यादाश्त खो जाये
कोई याद न आये ।
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 15 August 2014

मुझे वह भारत दे दो
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हाँ मुझे वह भारत दे दो
वह भारत
जो हर साल
चुनावी माहौल में दिखाते हो तुम
विकास करता भारत
गरीबी रहित भारत
भ्रष्टाचार मुक्त भारत
शान्त,शालीन भारत
दंगाई और महंगाई से बचा भारत
खुशहाल भारत
दे दो मुझे
जहाँ हम जी भर साँस ले सकें
आने वाली नसलों को
कुछ दे सकें
मुझे वह भारत दे दो
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 14 August 2014

स्वाधीनता दिवस की ख़ुशी में एक ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों 
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        अब हमें होश में आना होगा  
        अपनी मिटटी को बचाना होगा

         भूल   बैठे है लोग  कुर्बानी 
         फिर उन्हें याद दिलाना होगा 

         टूट जाने का है बहुत इम्काम 
         दिल से नफरत को मिटाना होगा 

          रास्ते खो गए हैं  जाने कहाँ 
           रास्ता   और बनाना  होगा 

         जिनपे ज़हरीले समर आतें हों 
          उन दरख्तों को गिराना होगा 

         'ज़ीनत' जी बोल दो गद्दारों से 
          अब यहाँ सर ना उठाना होगा 
          ---------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 12 August 2014

------------------ग़ज़ल------------------

लफ्ज़ लफ्ज़ का मआनी लिखने आता है
पानी पर भी पानी लिखने आता है

शैतानों की बस्ती में रह कर भी दोस्त
चार लफ्ज़ इंसानी लिखने आता है

धरती की हरियाली पर तो लिखती हूँ
फिर भी दुनिया फा़नी लिखने आता है

शीरीनी अल्फाज़ क़लम को है प्यारी
सच है तल्ख़ ज़बानी लिखने आता है

अपसदारी है हम को महबूब बहुत
लेकिन खींचातानी लिखने आता है

'जी़नत' जा़लिम को हमने जल्लाद लिखा
दानी को पर दानी लिखने आता है

------------------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 8 August 2014

शेर भी अपने लिये बा खुदा सितमग़र है ज़ख्म़ ही ज़ख्म़ बनाता हुआ इक ख़न्जर है उम्दह इक शायरी हो जाए इसी उल्झन में एक मिसरे के लिये जागना मुक़द्दर है
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
बात निकली तो र'वाँ में यह गयी कुछ वह गयी सारी बातें एक ही सुर में मुसलसल कह गयी लोग धीरे धीरे उठ कर जा चुके थे जा ब जा और मैं कि़स्सा अधूरी बन के यूँ ही रह गयी
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
तन्हा हरगि़ज़ छोड़ के मुझको अब आगे न बढ़ना तुम मुझको अपने साथ ही लेकर चढ़ना और उतरना तुम जीना मेरा क्या है जीना तुम न रहे तो दुनिया क्या इश्क़ में मेरे मरना हो तो मुझको मार के मरना तुम
--कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरा भैय्या नहीं रहा तो वक्त ने पाखी बाँध दिया मेरी कि़स्मत के दाने पर लिख पर'वासी बाँध दिया फूल खिला था घर में मेरे बिल्कुल मेरे भैय्या सा फूल को चूमा टहनी पकडी़ प्यार से राखी बाँध दिया
-------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday 5 August 2014

बतौर -ए -ख़ास चार मिसरे आपके हवाले 
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मेरा दावा है,हाँ दावा है ,मेरा दावा है 
दूसरा मेरे मुक़ाबिल न कही पाओगे 
इन दमकते हुए चेहरों में वफ़ा है कितनी 
दो क़दम साथ चलोगे तो समझ जाओगे 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday 4 August 2014

सुबह से शाम तलक साथ साथ चलता है वह मीठे पानी के चश्मे सा ही उबलता है कभी न आने वह देता है लब पे खुश्की को सुलगते लब पे वह एहसास सा पिघलता है कमला सिंह 'ज़ीनत'
इस तरह नींद उडा़ लेता है दर्दे दिल अपना बढा़ लेता है एक तस्वीर बनाकर मेरी अपने कमरे में सजा लेता है कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday 3 August 2014

कुछ तजुर्बे हों हासिल हुकमरानी करने को
होसला भी पर में हो आसमानी करने को
काफी एक चिंगारी सब वीरानी करने को
एक मछली काफी है ज़हर पानी करने को
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरी पुस्तक 'एक बस्ती प्यार की' एक ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों 
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मेरी गुर्बत मेरे महबूब की रुसवाई है 
फुस का घर मेरा बोसीदा है आबाई है 

मुझसे नफरत है खुदारा के शनासाई है 
जुल्फ के साये में मय्यत मेरी रखवाई है 

ले के  रुदादे मुहब्बत का चली हूँ दिल में 
क़ब्र पे आहो-बक़ा होगी तो रुसवाई है 

कह तो आई थी के चलती हूँ मैं खुदा हाफ़िज़ 
अब भी दीवारों में क्यों गूंजती शहनाई है 

उनको भूले हुए जब एक ज़माना गुज़रा 
या इलाही यह बता कैसी नेदा आई है 

'ज़ीनत' रखते हैं हम नाकाम आशिकों का हिसाब 
कौन बर्बाद हुआ किसने सज़ा  पायी है 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday 2 August 2014

होकर अपने, क़द से बाहर, कोई धूल उडा़ता है
ऐसी सुरत, जब भी हो, तो होश मेरा खो जाता है
मेरे अंदर ज़ब्त बहुत है, सहने लायक सहती हूँ
उल्टी सीधी ही बातों पर, मुझको गुस्सा आता है
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 1 August 2014

एक ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों 
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हौसलों की उड़ान ले लेगा 
इन परिंदों की शान ले लेगा 

उसकी खामोशियाँ बताती है 
सब्र का इम्तिहान ले लेगा 

यह नए दौर का खिलौना है 
तेरे बच्चों की जान ले लेगा 

तेरी इज्ज़त वकार की हद में 
जो भी है दरम्यान ले लेगा 

उससे मिलना तो फासला रखना 
वर्ना यह आन-बान ले लेगा 

'ज़ीनत' यह दौरे-बेहयाई है 
सर से दस्तारो-शान ले लेगा 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'