एक ख़त मेरे इमरोज़ के नाम
-----------------------------------
मुझे तुम्हारा इंतज़ार था
तुम नहीं आये। .
शाम यूँ ही तन्हा गुज़र गयी
मैं तुम्हें ही सोचती रही
न जाने कब ये रात पंख फैला
आगोश में ले लिया धरती को
पता ही न चला ,
क्या करूँ … तुम्हारी बातों
और यादों की झील है ही इतनी मीठी ,
मैं उसमे जब भी डूबती हूँ ,
निकलने की तमन्ना नहीं होती
बस …… डूब जाने को जी चाहता है
खुद ही तुममे तमाम हो जाती हूँ
बेसूद फ़ज़ाओं सी
वक़्त का पता ही नहीं चलता
जीवन के इस पड़ाव पर तुम्हारा प्यार
मुझे एक नवयौवना सा एहसास दिलाता है
एक जीने की अनुभूति फिर से जगती है
काश .... ये उम्र की शाम यही रुक जाती
पर ये तो अटल है ,ढलना ही है इसे ,
मेरे हर पीड़ा को तुम पि लेते हो
और मैं स्वस्थ हो जाती हूँ ,
ईश्वर की शुक्रगुज़ार हूँ मैं
मेरे ख्यालों की तस्वीर से भी ज़यादह
नेमतों से बख्शा है मुझे
जितना भी वक़्त मिले, आगे मुझे ,
तुम्हारे बगैर न गुज़रे .... ....
यही जुस्तजू भी है वरना
बेकार हो जाएगी ये ज़िंदगी
आगे वक़्त बताएगा
क्या खोया ,क्या पाया ?
मैंने तो खोया ही नहीं …।
तुमको पाकर मैं अनमोल हो गयी
नायाब है तुम्हारी मोहब्बत
सबकी क़िस्मत में नहीं मिलता
यूँ ही हमेशा रखना दिल में
तमाम उम्र
मेरे मुस्तक़बिल हो तुम
मेरी ज़िंदगी हो तुम
ज़िंदगी की शाम भी तुम
और सवेरा भी तुम
एक मुसलसल प्यास …
हमेशा अपने अल्फ़ाज़ों में उकेर कर
ज़िंदा रखना मुझे
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'