Thursday 30 July 2015

मेरी एक ग़ज़ल मेरे पुस्तक  से  
=============
ख़ुदा जाने क्या आज कल कह रही हूँ 
समझ लूँ  के मैं यह ग़ज़ल कह रही हूँ 

 जहाँ  महवे-हैरत  जबां  पर  है  मेरे 
के ठहरे समुन्दर  को चल कह रही हूँ 

जो ज़िल्लत  की चादर से लिपटा हुआ है 
उसी  ख़ूने -दिल  को  उबल  कह रही हूँ 

खुदा उनके दिल पे है शैतान क़ाबिज़ 
मुसलसल मैं उसको निकल कह रही हूँ 

जो क़लमे  की सौगात  लेकर चला है 
उसी राहे  हक़ को अमल  कह  रही  हूँ 

तलब यूँ  ही  'ज़ीनत' बढ़ी आज  मेरी 
के दरिया के पानी को जल कह रही हूँ 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday 23 July 2015

चार मिसरे
____________________________
जब नहीं काटती जो बोती है
पैदा करके वो मां भी रोती है
नस्ले इंसान से 'शैतान' जने
परवरिश में कमी सी होती है
चार मिसरे
__________________________
जो ज़माने में हाथ मलते हैं
हाँ वही लोग सबसे जलते हैं
तपते सूरज का सामना होते
मोमबत्ती की तरह गलते हैं

Sunday 19 July 2015

मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
----------------------------------------
ग़ज़ल सुनने वाले ग़ज़ल सुन हमारा 
इसे   फ़िक्र   के   आसमाँ  से  उतारा 

हमारी  ग़ज़ल  में  है  खुशबू  हमारी 
किसी  ने न  परखा  किसी ने सँवारा 

मेरा लहजा नाजुक  है फिर भी ऐ यारों 
हर  इक  शेर  पत्थर जिगर  पे उभारा 

मैं  सहारा  की  तपती  हुई  रेत पर हूँ 
वही   रेत   दरिया , वही   है   नज़ारा
 
ज़माने   से  लड़ती  चली  आ  रही  हूँ 
यही  हाल  अपना ,यह किस्सा हमारा 

ऐ  'ज़ीनत' नहीं दम  कि  आवाज़ दूँ मैं 
मोसल्सल   रहे  दम  उसे  है  पुकारा 
----- 'कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 17 July 2015

खुद को इस तौर पे सताती हूँ
नींद आखों से मैं उड़ाती हूँ
उसकी यादों की कश्तियाॅ लेकर
बस ख्यालों में डूब जाती हूँ


इस तरह दिल में वो उतर जाए
अपनी यादें लिए गुज़र जाए
उसको सोचूँ तो जी बहलने लगे
ऐसी जादूगरी वो कर जाए
एक शेर
लाशों का शहर भर में बाज़ार लगा देगा
दहशत का फरिश्ता है कोहराम मचा देगा

एक शेर
कत्ल की मेरी ही सुनवाई है
आज मुंसिफ बना कसाई है

एक शेर
जिसे जो चाहिए लेले कोई हाजत नहीं मुझको
मैं बचपन जी रही हूँ मेरा गुड्डा साथ रहने दे

Tuesday 14 July 2015

मेरी  एक ग़ज़ल आप सबके  हवाले 
*********************************
जब उसकी सिम्त पत्थर देखता है 
गुमाँ  करता   है  रहबर  देखता  है  

नहीं  अल्लाह पर जिसको भरोसा 
वही    मनहूस   दर-दर  देखता  है 

नहीं  मालूम  कतरे  को  हक़ीक़त 
उसे  भी  इक  समुन्दर   देखता है 

कोई 'जमशेद ' का  सागर न  रखे 
मगर सब कुछ सुख़नवर देखता है 

जिसे  आता  नहीं  परवाज़  करना 
परिंदों  को  नज़र  भर   देखता  है 

तुम्हें 'ज़ीनत' सुनो इस अंजुमन में 
नज़र वाला  ही   बेहतर  देखता  है 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 3 July 2015

एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
--------------------------------------
वो   भी    मेरे  जैसा  पागल 
जो  चुपचाप   है  बैठा पागल 

दुनिया  झूठी  लगती   सारी 
 लगता  है   वो सच्चा पागल 

मुझसे  आगे  पूछते  क्यूँ  हो 
बाद मिलन के किस्सा पागल 

कश्ती  मैं   पतवार  बना  वो 
देख  के  सारा  दरिया पागल 

कोई  क्या  जाने   मैं  क्या  हूँ 
मुझको सिर्फ वो समझा पागल 

'ज़ीनत  'ज़ीनत'  रटते रटते 
खूब  चलाता  चरखा  पागल 
------कमला सिंह 'ज़ीनत'  

Wednesday 1 July 2015

एड़ी मसल रही थी , मैं प्यास मल रही थी
इक आग लग चुकी थी, और मैं पिघल रही थी
जोश-ए- जुनूँ की हद ने , पागल बना दिया जब
साहिल को रौंद कर मैं ,पानी पे चल रही थी
मुझे देखे से ही बे - नूर हो कर
न जाने किस जहाँ में खो गया वो
क़सम देकर कहा कि मुस्कुराओ
फिर उसके बाद पागल हो गया वो
कमला सिंह 'ज़ीनत'