Monday, 28 December 2015

मतला एक शेर हाज़िर है
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मुझे तराश कर हीरा बना दिया उसने
निगाह डाल कर मीरा बना दिया उसने
नमक मिज़ाज़ थी होटों की चाशनी देकर
लुबाबे दहन से शीरा बना दिया उसने
धड़कते दिल का धड़कना सुनाई दे जाए
बस इस ख़याल से चीरा बना दिया उसने
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 23 December 2015

सारे सजदे अदा हो गए
हम मुसल्सल दुआ हो गए
उसकी रहमत के इक घूंट से
हम मुकम्मल नशा हो गए
शर्त रखते ही ऐसा हुआ
सारे रिश्ते हवा हो गए
बेवफा उनके होने तलक
मुस्तकिल हम वफ़ा हो गए
मेरी राहत को आये थे वो
रफ्ता रफ्ता सजा हो गए
तेरे अरमान ज़ीनत कई
पल ही पल में अता हो गए
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
मुहब्बत तेरी तो 'ज़ीनत' वो खुश्बू ज़ाफ़रानी है 
कभी तू लौंग की खुश्बू, कभी गंगा का पानी है 
---------कमला सिंह 'ज़ीनत'
तेरे गुलशन में चहकने से ही दिल भरता है
बुलबुले चमने अदब चुप तेरी दुखदाई है
तू ही इज़्ज़त है सलामत है तुझी से ये बहार
तू नही है तो चमन वालों की रुसवाई है
____________कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday, 22 December 2015

वही 
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वजूद मेरा 
मेरे होने की 
दलील वही 
मैं प्यासी 
जिस जा फिरुँ 
बनता है सबील वही 
वही है मेरा खुदा 
मेरा रहनुमा मौला, 
वही है दरिया 
समंदर 
तो मीठी झील वही 
ज़माना तू क्या करेगा 
रहम का भिखारी 
तुम्हारे पास तो 
एक सांस भी लेना 
मुश्किल 
नहीं है 
दाता सिवा रब के  
पूरी दुनियां में 
मैं जानती हूँ 
मुझे फ़क्र है 
रहमानी पर 
मुझे फ़क्र है 
सुल्तानी पर 
मैं जानती हूँ 
मुझे फ़क्र है 
वो ख़ालिक़ है 
और मालिक है 
मैं जानती हूँ 
नहीं उसके मुक़ाबिल कोई 
वो आसमान का मालिक 
वही ज़मीन ,वाला 
परिंदों का ख़ालिक़ 
वही 
चारिंदो का शाह 
हवा चले तो 
वही ज़ेरो जबर 
करता है 
उसी के दम पे ज़माना 
उड़ान भरता है 
जलाल उसका 
कुदूरत पे है 
जलील वही 
वज़ूद मेरा 
मेरे होने की 
दलील वही 
--कमला सिंह 'ज़ीनत '

Saturday, 19 December 2015

एक ग़ज़ल आपके हवाले दोस्तो
---------19/12/2015 ---------
भूली बिसरी यादों से हम अक्सर मिलकर आते हैं
पीना छोड़ दिया है लेकिन मयखा़ने तक जाते हैं
आखों का पिछला दरवाजा़ छोड़ दिया था पहले ही
उन ख़्वाबों से चोरी - चोरी अपनी नींद उडा़ते हैं
बोल रहे हैं हम अपनों से रिश्ता तर्क हमारा है
एक पहर भी उन यादों को कैसे कहाँ भुलाते हैं
डर लगता है सच्चाई का लोग तमाशा कर देंगे
काग़ज़ पे पानी को लिखकर अपनी प्यास बुझाते हैं
करवट करवट चादर चादर सलवट सलवट रातों को
चाह भी लें तो देर तलक हम खुदको कहाँ सुलाते हैं
"जी़नत" सच की क़समें देकर पूछते हैं जब यार मेरे
कोई नहीं है यह बतलाकर झूटी क़समें खाते हैं
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 17 December 2015

एक ग़ज़ल आप सभी के हवाले मित्रों
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मुश्किल ये नहीं है कोई ज़ंजीर हिला दे
ये बात बडी़ है कोई तक़दीर हिला दे
सजदे में झुकी बैठी हूँ ऐ मेरे खु़दाया
किस्मत की मेरी थोडी़ सी तस्वीर हिला दे
लिखती हूँ हरइक शेर को मैं खून ए जीगर से
आसान नहीं है कोई तहरीर हिला दे
छोडा़ है निशाने पे भरोसे के कमाँ से
तूफाँ को कहाँ ताब रग-ए-तीर हिला दे
खु़द्दार का सर होता है ऐसा ही मेरे यार
दुश्मन के मुकाबिल होतो शमशीर हिला दे
"जी़नत" की दुआओं में असर देखने वालो
करवट जो दुआ लेले तो जागीर हिला दे
एक ग़ज़ल हाजि़र है दोस्तो
___________________________
मुझसे मुझको ही लापता करके
जि़ंदगी ले उडी़ हवा करके
एक मोहसिन था कोई अपना भी
भूल बैठा है अब वफा़ करके
उसको नज़रें तलाश करती हैं
कौन चुप हो गया सदा करके
बुत मुहब्बत का एक टूट गया
मैंने पाया भी क्या खु़दा करके
ज़ख़्म रिस्ते हैं आज भी मेरे
थक चुकी हूँ अजी दवा करके
माफ़ कर दूँगी उसको मैं "जी़नत"
वो मसीहा रहे ख़ता करके

Tuesday, 15 December 2015

आप सबके हवाले मेरी एक ग़ज़ल 
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तुम तो जाके बैठे हो गेसुओं के साये में 
जल रही हूँ मैं अब भी बिजलियों के साये में 

उँगलियाँ उठी होंगी तुम तो डर गए होगे 
जी रही हूँ मैं लेकिन तल्खियों के साये में 

क़ीमती जवानी थी जिसको तेरी गलियों में 
छोड़ कर चले आये खिड़कियों के साये में 

रौंदने लगी मुझको बेवफ़ाईयों तेरी
छटपटा रहे हैं हम सलवटों के साये में

क्यूँ जुदा नहीं करते क्यूँ भुला नहीं देते
टूटते हैं हम अक्सर दूरियों के साये में

तुम तो खुश हुए होगे इक न एक दिन शायद
मेरी उम्र गुज़री है हिचकियों के साये में

लड़ रही हूँ मैं तन्हा ज़ीनत अब हवाओं से
मसअला है जीने का आँधियों के साये में
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday, 14 December 2015

एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
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हर तरफ नाग -नाग मिलते हैं 
चील कौवे और काग मिलते हैं 

अब तो पानी से भी सहमती हूँ 
झील -सूरत में आग मिलते हैं 

कुछ पुराने कथन बदलते नहीं 
चाँद वालों में दाग मिलते हैं 

झुंड  हर सु है  वनसियारों का 
 सुर नहीं , ना ही राग मिलते हैं 

खारे पानी   का है  समुंदर भी 
अब किनारों पे झाग मिलते हैं 

किस तरफ रुख करें कहो 'ज़ीनत' 
सारे   मनहूस  बाग़ मिलते हैं 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 11 December 2015

अमीर लोग हो ,गुलशन चलो सजाओगे 
हर एक क़ीमती फूलों को भी लगाओगे 
बसा तो सकते हो फूलों में खूब खुशबू भी 
तराने गाये वो बुलबुल कहाँ से लाओगे 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 10 December 2015

मेरी दोस्त शिकायत है तुमसे 
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बिछड़न एक टीस 
एक दर्द ,एक आह 
एक सोज़ एक साज़ 
सिहर उठती हूँ 
बस ख़याल से ही। 
और हुआ भी यही 
ईमानदारी से निभायी मैंने दोस्ती 
हर कदम साथ 
सही या गलत ,फिर भी 
शिद्दत से निभायी दोस्ती 
फिर क्यों ये सिला दिया ?
वादाखिलाफी क्यों ?
बिना बताये ,बिना जताए ले गयी तुम 
हमारी बेशकीमती यादों का खजाना ?
इस दिल के तिजोरी की 
चाभी तो एक ही  थी ..... 
तुम बिना लौटाए ख़ज़ाने के साथ 
मौत के साथ हो ली  ... ?
अब कहाँ नसीब दोस्ती मुझे ?
तनहा रह गयी मैं  ... 
अधूरी  
बिलकुल अधूरी  ... 
तुम जहां हो खुश रहना  ... 
यही दुआ है और ईश्वर से प्रार्थना भी 
अलविदा 'जया '
.... कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday, 6 December 2015

मेरी एक ग़ज़ल पेश है 
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प्यार करना बहुत आसान नहीं होता है 
हर कोई दिल से सुलतान  नहीं  होता है 

मैंने माना के ज़माने में हैं अच्छे दिल भी 
सबकी  फ़ितरत  में शैतान नहीं होता  है  

बेवफ़ा  कौन  बनेगा यूँ  ही  चलते चलते 
भीड़  में  ये भी  तो  पहचान नहीं होता है 

शायरी यूँ  तो सभी  लोग किया  करते  हैं 
हर  कोई  साहिबे  दीवान  नहीं  होता   है

हम तो हिम्मत से सफ़र करते हैं शहरों-शहरों 
दूर   तक  रास्ता  सुनसान  नहीं   होता  है  

आज के दौर  में 'ज़ीनत' नहीं सबके बस में 
इश्क़   पर  हर  कोई  कुर्बान नहीं  होता  है 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 2 December 2015

बात करना जो ज़माने से तो तेवर रखना
तंग नज़रों से बचाकर के ये जे़वर रखना
अपने लहजे में शहद घोल कर रखना लेकिन
एक पहलू में छुपाए हुए ख़ंजर रखना
गर्चे कमज़र्फों की महफिल में ठिकाना हो कभी
बात करनी भी पडे़ उनसे भी तो बेहतर रखना
जब तलक आँखों में उस वादे का सुरमा ठहरे
मेरी इन पलकों पे , उस शख़्स का पहरा ठहरे
आईना वही है अभी , शीशा भी वही है
इक अक्स सलामत है और चेहरा भी वही है
कभी आओ ना फुर्सत में तुम्हें हम ग़म सुना देंगे
हमारे ग़म को सुन लेना वहीं पत्थर बना देंगे
कभी दिल टूटने का हादसा जी भर के सुनना तुम
ये दावा है मेरे मोहसिन तेरी नींदें उड़ा देंगे
मेरे दामन में कांटें हैं , यही तोहफा़ हमारा है
मुक़द्दर में यही तो है तुम्हीं बोलो की क्या देंगे
जो दामन तार है मेरा फ़क़त,क़िस्मत की दौलत है
इसी दामन की क़तरन से कोई गुड़िया बना देंगे
न ग़म करना हमारी मुफलिसी पर ऐ मेरे हमदम
पडेगा वक़्त तो तुझ पर ,चलो खुद को लूटा देंगें
नज़र बद है तो है दुनिया मगर'ज़ीनत'का वादा है
तुम्हारे वास्ते जाओ चलो खुद को छुपा देंगे
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday, 28 November 2015

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है मेरी पुस्तक  'रेत की लकीर' से  आप सबके  हवाले 
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जब  उसकी  चाह  में   अजी  बेदार  हो गए 
पढता  रहा  था  मुझको  वो अखबार हो गए 

दिन  रात  वो  हमारे  तसव्वुर  में था बसा 
हम   भी  उसी  के   शौक़  बीमार   हो  गए 

उसकी तरफ  जो  मौजें मिटाने को बढ़ चली 
कश्ती  में   ढल  गयी  कभी  पतवार हो  गए  

इतना  किया  था प्यार  की उसके ही वास्ते 
चाहत  के  हर मुकाम  पे  किरदार  हो  गए 

लब पर लिया था जोशे मुहब्बत में उसका नाम 
मक़तल  तमाम   साहिबे   तलवार  हो  गए 

मुंसिफ  ने  शर्त  रख  दिया सच  बोलना पड़ा 
दुनियाँ   के   रूबरू   सभी   इक़रार  हो   गए 

'ज़ीनत'   हमारे  नाम   पे  इल्ज़ामें  इश्क़ था 
पाकर  उसी   इनाम   को  सरशार   हो    गए 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 18 November 2015

देखना गौ़र से 
छोङ आई हूँ उसी कमरे में
उसी बिस्तर पर
सिरहाने के नीचे तकिये की ओट में
मीठी मीठी यादें 
तुम्हारे लिये
उन्हें संभाल कर रखना
धुंधली नीली रोशनी में बिखरे पडे़ होंगे
हमारे एहसास
बटोर लेना
मोगरे की खूशबू में पेवस्ता
रातरानी की महक
बेलगाम फैल रही होगी अभी तक
सम्भाल कर रखना
फिर मिलेंगे उसी नीली रोशनी तले
खूशबूदार एहसास के साथ।
___कमला सिंह "ज़ीनत "
अपनों जैसा प्यार मिले तो सचमुच अच्छा लगता है
इक सच्चा संसार मिले तो सचमुच अच्छा लगता है 
आह्लादित आधार मिले तो सचमुच अच्छा लगता है 
घर जैसा व्यवहार मिले तो सचमुच अच्छा लगता है 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
ऐ शह्र ए लखनऊ तेरे गुलशन में एक दिन
मुझको भी खिलके खूब महकना नसीब था
जी़नत अदब के शह्र में इक रोज़ ही सही
बुलबुल की नग़मगी में चहकना नसीब था
----कमला सिंह "ज़ीनत "

Friday, 13 November 2015

सहारे की बैसाखी में
टूटने का निशान
गहरा रहा है अभी से
कल का भविष्य लिख रही हूं
टूटी बैसाखी 
और झुके कांधे का ब्लैक बुक
जब जब गर्दन उठाई
आसमान की ओर
देखने को अपना चाँद
खुदकी चाँदनी
रात अमावस 
चाँद काला हुआ
इन आँखों को
बे-मौसम
बरस जाने की आदत है
रोज़ बनाती रही
सीढियां 
सहारे की
सीढियां ढहती रही
बहती रही
किया है प्यार बेहिसाब तुझसे 
मांगा नहीं दूध का हिसाब तुझसे
सारी सीमाएँ लाँघ दी ममता में 
फिर भी न मिला सवाब तुझसे
--कमला सिंह "ज़ीनत"
इक दीया मुहब्बत का ऐसा भी जलाएं हम
जिसकी रोशनी फैले और मुस्कुराएं हम
फिर आई है दीवाली 
बहुत सारे दीपों के साथ ही
बेटी याद आई है
सोचती हूं खुद की तरह ही 
उस घर आंगन को
जहाँ दीवाली तो हो पर बेटी न हो
लाख दीप जले
पर कोई कोना खाली ही रह जाता है
रोशनी कोने कोने में फैले
और वह कोना घर का कहाँ है
बेटी ही जानती है
छुपा छिपाई के खेल खेल में
घर का हर अंधेरा कोना जानती है
दीप आज भी रोशन होंगे
पर वो कोना बेटी के बगैर
अंधकार में ही रहेगा
मैं नहीं जानती वह कोना घर का
पर बेटी जानती है।
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday, 8 November 2015

बडे ही फख्र की बात है हमारे लिए
कि हम एक औरत हैं
हम तहज़ीब हैं
हम एक सिलसिला हैं
हमारे ही नूर से यह जगमगाहट है
यह दुनिया हम बनाते हैं
आसमान को ईश्वर
तो धरती की खूबसूरती हमसे है
जब तक हम रहेंगे
यह धरती सूनी न रहेगी
जैसे ईश्वर जब तक रहेगा
यह सारा तामझाम रहेगा
धरती और आसमान रहेगा
मान रहेगा और सम्मान रहेगा

Thursday, 5 November 2015

चले आते हो वक्त़ बे वक्त़
बिन बुलाए
इंकार भी नहीँ है मुझे
तुम्हारे आने पर
हां तुम्हारे आने पर मैं
तमाम शिकायतें
यादों की खूंटी से
बारी बारी उतारकर
तुम्हारे सामने रख देती हूँ
और तुम
तमाम शिकायतों की सलवटों को
प्यार की थपकियों से सहलाकर
मखमली बना देते हो
छिड़क देते हो अपने प्यार की खुशबू
और फिर
करीने से टांग जाते हो
तमाम शिकायतों को वहीँ का वहीँ
और मैं
महकती रहती हूँ अंदर अंदर
-----------कमला सिंह ज़ीनत
कुछ टूटे से पत्ते
कुछ झड़े से फूल
और दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ
याद आने के तेरे
बहुत सारे कारण हैं
लाखों की भीड़ और बेशुमार शोर में भी
याद रहते हो मुझे तुम
कल पड़ोस का कालबेल
आधी रात बजाया था किसी ने
नींद मेरी उचट गई थी
नज़रे ढूंढने निकल पड़ीं दरवाज़े तक
तुम नहीँ थे वहां
लौटी जब जब तुम्हें न पाकर ये नज़रें
आखों में उभरे थे अक्स तेरे होने के
हवाओं की सांय सांय में
तुम्हें ही बोलते सुना है
पानी की बूंद जब नलके से टपकती है
सिहरा देती है वो आवाज़
टप टप टप टप
बोलो लिख दूँ ?
तुम्हारा नाम शह्र के फसीलों पर।
बोलो लिख दूँ
हमें तुमसे बेपनाह मुहब्बत है ?
बस इसी तरह के सवालों से 
सहम जाते हो तुम हमेशा
उंची पहाडियों पर बोलो चढ जाऊँ ?
कर आऊं ऐलान अपनी मुहब्बत का ?
डर जाते हो तुम हर बार
कुछ कमी बाकी है तुम्हारे प्यार में
आना वहीँ मिलूंगी तुम्हें
जब कह सकने की हिम्मत जुटा लोगे
तुम्हें हमसे प्यार है
और यही तहरीर लिखते आना
हर गली ,हर नुक्कड ,हर चौराहे पर
मैं इसी आरज़ू में राह तकती
उसी हिम्मत वाले टीले पर
इंतज़ार करती मिलूंगी तुम्हें।
क्या है आखिरकार
हमारे और तुम्हारे बीच
आज यही एक सवाल फिर से
यह दिल पूछ रहा है
क्या जवाब दूं इसे 
तुम्हीं बता दो
ख्यालों में जब जब तुम आते हो
दिल को बिन बताए पता चल जाता है
अंदर की हलचल बाहर की खामोशी
और फिर आवारा दिल का पूछना
क्या है आखिरकार
तुम्हारे और हमारे बीच
दस्तक की एक आहट
सिहरा देती है दरो दीवार
सहम जाता है कोना कोना
बदलने लगता है मौसम
खिलने लगती हैं कलियां
झड़ने लगते हैं पराग
भंवरों की रूनझुन साफ सुनाई देती है
चहकने लगती हैं बुलबुलें
कुछ इस तरह आते हो तुम
बहुत सताते हो तुम
क्या हो तुम
क्या है तुम्हारे नाम का असर
जादूगर तो नहीं हो कोई
अचम्भित कर देते हो कभी कभी
लगातार पीसती रही मेहदी
हरी की हरी ही रही
तेरा नाम लिखते ही हथेली पर
सहम कर लाल हो गई है
देखो न

Wednesday, 28 October 2015

मुस्काता इंसान कहां है
हिन्दू मुसलमान कहां है
सहमा-सहमा है ये भारत
कल का हिन्दुस्तान कहां है
शुक्र रब का है बलंदी पे अभी तक सर है
मेरा हमसाया मददगार मेरा परवर है
ऐ थपेड़ों सुनो कश्ती को हिला सकते नहीँ
मेरी कश्ती का निगहबान अभी ईश्वर है
एक ग़ज़ल हाज़िर है आप सबके हवाले
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रोते रहते हैं सिसकते कम हैं
इस तरह पुतलियों में हम नम हैं
सारी दुनियाँ खुदा सी होती गयी
हम ही बस इस ज़हान में ख़म हैं
नाचती है सुरूर में परियाँ
हम अकेले ही पी रहे ग़म हैं
लग्जिशेँ आई नहीं , भटके क्या
जिस जगह थे वहीँ -वहीँ जम हैं
दर्द ने जब भी हमको लरज़ाया
घुंघरुओं की तरह बजे छम हैं
गुल हैं ''ज़ीनत 'हमीं हैं खुशबू भी
दुश्मनों के लिए हमीं बम हैं
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक मतला दो शेर
उसी वादी में मेरे पर जले थे
जहाँ पर बर्फ के पौधे लगे थे
वहीँ पर घूम कर अब आ चुके हैं
शुरू में जिस जगह से हम चले थे
बस खाली हाथ लौटे हैं सफर से
हमारे पांव में छाले पड़े थे
सब रिश्तों का एक ठिकाना
जीवन का है तानाबाना
दिल के अंदर झांक के देखा
दिल तो है इक चिड़ियाखाना
•••••••••••••••GHAZAL•••••••••••••••••
गुलशन का तेरे किस्सा कल कौन सुनाएगा
कोई भी यहाँ आकर आंसू न बहाएगा
शैतान नूमा इंसां घर - घर को जलाएगा
इस आग को ऐसे में फिर कौन बुझाएगा
होगा जो पड़ोसी ही अपनों से डरा सहमा
मुश्किल की घडी़ में फिर वो कैसे बचाएगा
घर से ही नहीँ जिसको तहज़ीब मिली थोड़ी
आवारा वही बच्चा नफरत को बढाएगा
मंदिर तो बने पल में मस्जिद भी लगे हाथों
टूटे हुए इस दिल को अब कौन बनाएगा
छीना गया बच्चों से क्यूँ बाप के साये को
कल कौन यतीमों को अब राह दिखाएगा
कम्बख्त सियासत है कमज़र्फ़ सियासत दां
हर ज़ख्म पे मरहम ये रूपयों का लगाएगा
जिस हाथमें पत्थर है और सोचमें पागलपन
दावा तो उसी का है गुलशन को सजाएगा
--------कमला सिंह 'ज़ीनत'
सुनो इक बात ऐ समधन हमारी
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सुनो इक बात ऐ समधन हमारी
हमारी है हर इक चिंता तुम्हारी
सजेगा घर हमारा हर खुशी से
मिटेगा अब अंधेरा रौशनी से
हमारा लाडला दुल्हा बनेगा
हम सबके वास्ते साया बनेगा
बहू की शक्ल में लाएंगे बेटी
हमारी और तुम्हारी एक रोटी
रहेगी घर में वो मेरे सलामत
ये रिश्ता यूँ रहेगा ता-क्यामत
तेरे आंसू मेरे आंसू बनेंगे
उधर तुम हम इधर सासू बनेंगे
नया अब सिलसिला सिलते हैं हम तुम
चले आओ गले मिलते हैं हम तुम
कमला सिंह 'ज़ीनत'

कुछ तो ज़रूर छूटा है तुझमें मेरा
अचानक याद आ जाते हो तुम
मैं मशगूल हो जाती हूँ अपने आप में
मसरूफ़ रहती हूँ पल पल
ऐसा क्यूँ होता है अचानक
याद आ जाते हो तुम
कुछ तो ज़रूर छूटा है तुझमें मेरा

Tuesday, 20 October 2015

आओ फिर से बहार बनकर
चमन वालों ने पुकारा है
तितलियाँ आंखें बिछाए पड़ी हैं
पत्तियों पर शायराना शबनमी बूटे हैं
भंवरे कतार में खड़े हैं
आमद की खुशबू पसरी है
मैं भी वहीं बैठी हूं
हरी घांस पर
आओ न बहार
तुम्हारे होने और पास बैठने के पल में
घांस सहलाना तोड़ना और उसी जगह
छोड़ कर लौट जाना
बातें सुनी अनसुनी
कही अनकही
आओ न
आओ फिर से बहार बनकर
_________कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday, 5 October 2015

सब रिश्तों का एक ठिकाना
जीवन का है तानाबाना
दिल के अंदर झांक के देखा
दिल तो है इक चिड़ियाखाना
जब भी तू दे तो सही दे मौला
मेरे हिस्से न कमी दे मौला
गर दुआएं कभी कबूल तू कर
झोलियां भर के खुशी दे मौला
मीठी - मीठी घर - आंगन बोली उतरे
आसमान से परियों की टोली उतरे
ज़ीनत की या रब इतनी सी ख्वाहिश है
मेरे घर में खुशियों की डोली उतरे
उसी वादी में मेरे पर जले थे
जहाँ पर बर्फ के पौधे लगे थे
वहीँ पर घूम कर अब आ चुके हैं
शुरू में जिस जगह से हम चले थे
बस खाली हाथ लौटे हैं सफर से
हमारे पांव में छाले पड़े थे
गुलशन का तेरे किस्सा कल कौन सुनाएगा
कोई भी यहाँ आकर आंसू न बहाएगा
शैतान नूमा इंसां घर - घर को जलाएगा
इस आग को ऐसे में फिर कौन बुझाएगा
होगा जो पड़ोसी ही अपनों से डरा सहमा
मुश्किल की घडी़ में फिर वो कैसे बचाएगा
घर से ही नहीँ जिसको तहज़ीब मिली थोड़ी
आवारा वही बच्चा नफरत को बढाएगा
मंदिर तो बने पल में मस्जिद भी लगे हाथों
टूटे हुए इस दिल को अब कौन बनाएगा
छीना गया बच्चों से क्यूँ बाप के साये को
कल कौन यतीमों को अब राह दिखाएगा
कम्बख्त सियासत है कमज़र्फ़ सियासत दां
हर ज़ख्म पे मरहम ये रूपयों का लगाएगा
जिस हाथमें पत्थर है और सोचमें पागलपन
दावा तो उसी का है गुलशन को सजाएगा
--------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 24 September 2015

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है 
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अब मिलने-मिलाने का भी आसार नहीं है 
पहले  की  तरह  रास्ता  हमवार  नहीं   है 

ठोकर लगी तो हमको भी एहसास हो गया 
पत्थर  भी  मेरी  राह  का  बेकार  नहीं  है 

हम  हादसों  की  ज़द में  बराबर  खड़े  रहे 
थोड़ा भी  ज़िक्र  सुर्ख़ी-ऐ-अख़बार  नहीं  है 

है  आसमान  छत  मेरा आँगन  ज़मीन है 
इस  दरम्यान  कोई   भी  दीवार  नहीं  है 

अख्लाख़ की बिना पे हैं वह वक़्त के गाज़ी 
लड़ते   हैं  मगर  ज़ुंबिशे  तलवार  नहीं  है 

करता है जो भी 'ज़ीनत' दगा दूसरों के साथ 
उस आदमी  का  कोई भी  किरदार  नहीं  है 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 17 September 2015

जब तलक सांस है तब तक ही गिला है कोई
बाद मरने के भला खुद से मिला है कोई
एक पल भी न रूके छोड़ के सब दर निकले
हम भी औरों की तरह वक्त़ के नौकर निकले
तुम चले आओ ख़्यालों में 'ग़ज़ल' होने तक
फिक्र की झील में अल्फ़ाज़ कंवल होने तक
नज़्म ____खुद्दारी
बात इक चुभ गई
इस दिल में कई ज़ख्म बने
मैंने इस बात को 
सीने में ही तहबंद किया
आया जब भी तू मेरे पास
तो मुस्काई मैं
मुझको मालूम था
तू ज़ख्म का मरहम होगा
बाद उसके तो
मेरे ज़ख्म की रूस्वाई थी
बस इसी बात ने खुद्दार मेरी धड़कन को
आह करने न दिया
कोई तमाशा न किया
और हम
ज़ख्म की सूरत में यूं ही रिस्ते रहे
कोई मातम न किया
और न रंगत बदली
ज़िन्दगी काट दी
इक ज़ख्म हरा रखने में
आह इक बात ने
किस दर्जा मुझे मस्ख किया
दर्द ए दिल आह रे गुमनाम
तेरा ज़िक्र ही क्या
चल के अब देर हुई
शाम हुई शब जारी
सो गए ज़ख्म लिए
साथ लिए खुद्दारी

Wednesday, 9 September 2015

आस का आसताना
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इश्क़ की तपिश
और तुम्हारे एहसास की खुशबू ने
मुझे अगरबत्ती बना दिया है
तुम्हारे आस का आसताना
जाने कबसे महका रही हूँ
कभी तो निकल जुनूँ की वहशत लपेटे
खाक होने से पहले
दीदार ए सनम मुबारक तो हो
हवा बहुत तेज़ है
सुलगन ज़ोरों पर है
आस का आसताना खुशबूदार है
खाक सजदे में है
ठंडी हो रही है
कुछ लम्हे और बस ।

Monday, 31 August 2015

पिघल ही जाओ ऐ ज़ीनत कि उसकी लाज बचे
जुनूँ में आके तुझे मोम कह दिया उसने



कहा है उसने सभी से की खुशबूदार हूँ मैं
महक रही हूँ वो सच्चा शुमार हो जाए



बग़ैर पूछे मुझे लिख लिया है उसने अगर
उसी का हिस्सा हूँ लिख दो क़रारनामे में




दुआ ये है उसे जुगनू बना के ऐ मालिक
तमाम सुब्ह के बदले में रात दे मुझको



उसी से पूछिए रखता कहां कहां है मुझे
वही है डाकिया मेरा पता बतायेगा
कमला सिंह ज़ीनत

Sunday, 30 August 2015

एक अमृता और - ( भाग -2 )
आया था कल भी
यादों का डाकिया
दे गया था ख़त 
तुम्हारे नाम का
बेचैन रूह ने पढ़ा
बेचैन रूह की तड़प को ।
मिल गया मुझे हू ब हू
जो भेजा था तुमने
एहसास के गीले लिफाफ में।
आह भरते हुए लफ्ज़
बे-तरतीब बिखरे लम्हे
टूटती बनती लकीरों की तस्वीरें
सब कुछ ।
सुनो ....
ऐ मेरे नसीब
तुम्हारी ही तरह
इन एहसासों को
सीने से लगाये
आज भी ज़िंदा हूँ मैं
तुम्हारे लिए
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारे लिए
....कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 28 August 2015

एक अमृता और -( भाग -2 )
जिस दिन की थी तुमने वो शिकायत
किसी की नज़दीकी
ज़र्रा बराबर भी तुम्हें मंज़ूर नहीं...उफ्फ़
उस दिन बहुत किया था मैंने
तुमसे तकरार
पर सच मानो
मुझे बहुत ही अच्छा लगा था
तुम्हारा यही अधिकार तो भाता है मुझे
मुझे तुम्हारी क़ैद चाहिए रिहाई नहीं
तुम्हें मेरा उड़ना भी पसंद है और
हवाओं से मिलना भी मंज़ूर नहीं
हा..हा..हा... क्या बोलूँ मैं
सुनो तुम्हारी नाराज़गी जायज़ है
पर ज़िन्दगी की तलवार की धार भी
इधर बहुत तेज़ है
जब भी हमारे और उठे गरदन के बीच
स्वाभिमान का टकराव होगा
लहू चाटती हुई लाश
मर्सीया पढ़ने को तरसेगी
बस भरोसा रखना, ऐतबार करना
हम तुम्हारे हैं और तुम्हारे ही रहेंगे पगले
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday, 24 August 2015

एक अमृता और - ( भाग -2 )
आसरे के महल में
इंतज़ार की उस कोठरी के सामने
अचानक मेरी नज़र 
जाकर टकराई है
ओसारे के कोने में टंगी
एहसास की उस पोटली पर
कभी रख छोड़ी थी जो तुमने
एहसासों की खुशबू मुहरबंद
हू ब हू उसी खुशबू की लिप्टन बटोरे
बंधी रक्खी हैं आज तक
अब तक और अभी भी वो पोटली
ओसारे में टंगी पोटली खूब तरो ताज़ा है
शायद तुम्हारा ही छुअन बाकी है उसमें
आओ कभी खोलें
पोटली की बंद गिरह को
और फिर से एक खुशबू बंद कर दें अपनी
ताकि फैलती रहे सदियों तक
हमारे होने की खुशबू
--कमला सिंह 'ज़ीनत'
शेर
फूलों की बात करके खुशबू का ज़िक्र कर के
हम रह गए सिहर के हम रह गए बिखर के
एक शेर
पानी में गिर के जैसे ,गल जाये है बताशा
यह खेल ज़िन्दगी है यह ज़िन्दगी तमाशा
शेर
पल पल के हादसों पर छाले बहा रही थी
इक आग ज़िन्दगी थी उसको बुझा रही थी
मुक्तक
मैं दरवाज़े पे बैठी हूँ मुझे अंदर बुला माई
लगी है भूक मुझको प्यार से तू फिर खिला माई
खुदा से बोल के ज़ीनत की ख़ातिर आजा धरती पर
वही लकड़ी पर बैठी आंटे की चिड़िया बना माई
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday, 22 August 2015

एक शेर
मुझसे मत पूछिए ठिकाना मेरा
खुदमें रहकर भी अब नहीं रहते
कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक शेर
कुछ बचे हैं वो अपने ग़म दे दे
मैंने कब मांगा था मरहम दे दे

Wednesday, 19 August 2015

एक अमृता और...( भाग-2)
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आज रात भी एक तूफान उठा था
यादों के समुन्दर में
ज़ोरदार हलचल मची हुई थी
गीला गीला पड़ा था
सारा का सारा मंज़र
सर से पांव तक नमी ही नमी पसरी थी
और बिखरा पड़ा था वजूद
सब कुछ अलसाया, बेजान
पल पल यादों की कतरनें बटोरती मैं
लहूलहान थी रात भर
ख़्वाबों वाली अलमारी खुली पड़ी थी
समुन्दर की बेलगाम लहरें
बहा ले गईं सब कुछ
मेरे हिस्से की वो हर रात गवाह है
लो देखो मेरी मुट्ठी में क्या है
यह ख़राशें
कुछ कतरनों को बचाने की ललक में उभरी हैं
ज़रा सूरज को बुलाते आना
तुम भी साथ ही आना
इश्क़ की अलगनी पर टांग दिया है मैंने
बची बचाई यादों की कतरनें
यह ख़ज़ाना तुम्हारा है
यह दौलत तुम्हारी है।
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 13 August 2015

मेरी एक ग़ज़ल पेश है 
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ज़िंदगी   मैंने  गुज़ारी  है  सुराबों  की  तरह 
मैं  चटकती  रही  मानिंद  हुबाबों  की  तरह 

बेनियाज़ी  का  अलम देखिये  इस  दर्जा   है 
मुझको बे ज़ौक वो पढ़ता है किताबों की तरह 


शुक्र  करती  हूँ मैं पर मेरा  मुक़द्दर कुछ और 
ग़म  उतरता  है  शबो-रोज़  अज़ाबों  की तरह 

खूबसूरत    लिए   अंदाज़   कई   रंगत    में 
मुझसे तोहमात लिपटते हैं  हिजाबों  की  तरह 

रौनके खुश  लिए  आता है जो  अपना बनकर 
सुब्हे -दम  टूटने लगता है वो ख़्वाबों की  तरह 


यूँ तो 'ज़ीनत' तेरी क़िस्मत को है करना बदनाम 
ज़ाहिरन   मेरी  लकीरें   हैं   सवाबों  की    तरह 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday, 10 August 2015

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है 
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गीत  जैसा  है  वो  गुंजन  जैसा 
मिस्ले खुशबू है वो चन्दन जैसा 

एक  रिश्ता  अजीब  है  उससे 
मुझमें  रहता है वो बंधन जैसा 

लिपटा  रहता  है  वो  कलाई से 
और खनकता  है वो कंगन जैसा 

उसके होने का है एहसास मुझे 
मेरे  होठों  पे  है  चुम्बन  जैसा 

बेखुदी   में    मुझे  भिगोता   है 
वो बरस  जाता  है सावन  जैसा

उससे 'ज़ीनत' बहुत है प्यार मुझे 
दोस्त लगता है वो बचपन जैसा  
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday, 8 August 2015

'एक अमृता और' की एक नज़्म 
'बोलो न कैसे लिखूं'
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मेरे सारे ख़्याल 
इबादत को तैयार हैं  हाथ बांधे 
कागज़ की मखमली चादर पर 
ख़्यालों की सफ़बंदी   है 
क़लम की नियत में बस तू 
लगातार मैं और तू के बीच 
गुज़र रही है एक सनसनी 
सिहरन सी सलवटों में 
टूट रही हूँ मैं 
टुकड़े-टुकड़े ,हिस्से-हिस्से 
बिखरी पड़ी हूँ मैं 
इस गहराई को कैसे लिखूं 
बहुत तूल है इसके अंदर 
बोलो न कैसे लिखूं 
बोलो न कैसे लिखूं 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'