Thursday 29 October 2015

आखिर क्यूं है ये बेचैनी क्यूँ है इतना खिंचाव यह जकड़न और तड़पन बेकरारी के जाले में उलझा उलझा मन नासमझ सी दीवानगी बेलगाम सांसों का हुजूम वक्त़ बे वक्त़ इक तलाश नज़रों पर साजिशी यलग़ार यह किसका सोज़ है यह कैसी साज़ है यह कौन सी आवाज़ है सर से पांव तलक झनझना उठती हूँ मैं बस करो अब बस भी करो याद न आओ हिचकियों की आमद से परिशान हूँ मैं बिलकुल तुम्हारी तरह हां उसी तरह कमला सिंह 'ज़ीनत'

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