Thursday 30 July 2015

मेरी एक ग़ज़ल मेरे पुस्तक  से  
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ख़ुदा जाने क्या आज कल कह रही हूँ 
समझ लूँ  के मैं यह ग़ज़ल कह रही हूँ 

 जहाँ  महवे-हैरत  जबां  पर  है  मेरे 
के ठहरे समुन्दर  को चल कह रही हूँ 

जो ज़िल्लत  की चादर से लिपटा हुआ है 
उसी  ख़ूने -दिल  को  उबल  कह रही हूँ 

खुदा उनके दिल पे है शैतान क़ाबिज़ 
मुसलसल मैं उसको निकल कह रही हूँ 

जो क़लमे  की सौगात  लेकर चला है 
उसी राहे  हक़ को अमल  कह  रही  हूँ 

तलब यूँ  ही  'ज़ीनत' बढ़ी आज  मेरी 
के दरिया के पानी को जल कह रही हूँ 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

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