Tuesday 14 July 2015

मेरी  एक ग़ज़ल आप सबके  हवाले 
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जब उसकी सिम्त पत्थर देखता है 
गुमाँ  करता   है  रहबर  देखता  है  

नहीं  अल्लाह पर जिसको भरोसा 
वही    मनहूस   दर-दर  देखता  है 

नहीं  मालूम  कतरे  को  हक़ीक़त 
उसे  भी  इक  समुन्दर   देखता है 

कोई 'जमशेद ' का  सागर न  रखे 
मगर सब कुछ सुख़नवर देखता है 

जिसे  आता  नहीं  परवाज़  करना 
परिंदों  को  नज़र  भर   देखता  है 

तुम्हें 'ज़ीनत' सुनो इस अंजुमन में 
नज़र वाला  ही   बेहतर  देखता  है 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

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