Sunday 19 July 2015

मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
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ग़ज़ल सुनने वाले ग़ज़ल सुन हमारा 
इसे   फ़िक्र   के   आसमाँ  से  उतारा 

हमारी  ग़ज़ल  में  है  खुशबू  हमारी 
किसी  ने न  परखा  किसी ने सँवारा 

मेरा लहजा नाजुक  है फिर भी ऐ यारों 
हर  इक  शेर  पत्थर जिगर  पे उभारा 

मैं  सहारा  की  तपती  हुई  रेत पर हूँ 
वही   रेत   दरिया , वही   है   नज़ारा
 
ज़माने   से  लड़ती  चली  आ  रही  हूँ 
यही  हाल  अपना ,यह किस्सा हमारा 

ऐ  'ज़ीनत' नहीं दम  कि  आवाज़ दूँ मैं 
मोसल्सल   रहे  दम  उसे  है  पुकारा 
----- 'कमला सिंह 'ज़ीनत'

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