आप सबके समक्ष एक गीत प्रस्तुत है दोस्तों
______________________________
______________________________
गुज़रे हैं दिन हमारे इक उम्र ढलते ढलते
कुछ क़ाफ़िले भी बिछड़े यूँ हाथ मलते मलते
कुछ क़ाफ़िले भी बिछड़े यूँ हाथ मलते मलते
अब कौन था मसीहा किसको उतारते हम
इस दर्दे दिल की ख़ातिर किसको पुकारते हम
*ये रोग ही बड़ा था सीने में पलते पलते
इस दर्दे दिल की ख़ातिर किसको पुकारते हम
*ये रोग ही बड़ा था सीने में पलते पलते
गुज़रे हैं दिन हमारे......
हर सू रहा अंधेरा सूरज भी बेवफ़ा था
घुटते रहे अकेले आख़िर ईलाज क्या था
*लो बुझ गये अचानक दिन रात जलते जलते
घुटते रहे अकेले आख़िर ईलाज क्या था
*लो बुझ गये अचानक दिन रात जलते जलते
गुज़रे हैं दिन हमारे......
ये साँस बेवफ़ा सी कुछ काम आ सकी न
ये सुब्ह भी न पहुँची और शाम आ सकी न
*हम मर गये थकन से रस्ते में चलते चलते
ये सुब्ह भी न पहुँची और शाम आ सकी न
*हम मर गये थकन से रस्ते में चलते चलते
गुज़रे हैं दिन हमारे......
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11-12-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1824 में दिया गया है
ReplyDeleteआभार
बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteविस्मित हूँ !
बेहद शुक्रिया सर
Deleteबेहद ख़ूबसूरत गीत...तहे दिल से मुबारकबाद
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया
ReplyDeleteवाह ! बहुत खूबसूरत नज़्म ! शुभकामनाएँ !
ReplyDelete