Wednesday 10 December 2014

आप सबके समक्ष एक गीत प्रस्तुत है दोस्तों
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गुज़रे हैं दिन हमारे इक उम्र ढलते ढलते
कुछ क़ाफ़िले भी बिछड़े यूँ हाथ मलते मलते
अब कौन था मसीहा किसको उतारते हम
इस दर्दे दिल की ख़ातिर किसको पुकारते हम
*ये रोग ही बड़ा था सीने में पलते पलते
गुज़रे हैं दिन हमारे......
हर सू रहा अंधेरा सूरज भी बेवफ़ा था
घुटते रहे अकेले आख़िर ईलाज क्या था
*लो बुझ गये अचानक दिन रात जलते जलते
गुज़रे हैं दिन हमारे......
ये साँस बेवफ़ा सी कुछ काम आ सकी न
ये सुब्ह भी न पहुँची और शाम आ सकी न
*हम मर गये थकन से रस्ते में चलते चलते
गुज़रे हैं दिन हमारे......
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

6 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11-12-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1824 में दिया गया है
    आभार

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  2. बेहद ख़ूबसूरत गीत...तहे दिल से मुबारकबाद

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  3. बेहद शुक्रिया

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  4. वाह ! बहुत खूबसूरत नज़्म ! शुभकामनाएँ !

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