Friday 26 September 2014

एक अमृता और
_____________________
आज पता नहीं क्यूँ
चाह कर भी नहीं सो पा रही हूँ मैं
रात बीत रही है
आँखें कसैली हो रही हैं
और मैं सो भी रही, जग भी रही हूँ
अजीब सी कशमकश है
मैं अधूरी हूँ आज
मेरी आँखों के ख़्वाब तुम कहाँ हो
आओ न
मैं सोना चाहती हूँ
पूरी दुनिया सो चुकी
परिंदे भी सो गये
हम अकेले
आँखों में इंतजा़र के प्रेत की तरह
जग रहे हैं
हवा की साँय साँय
दिल दहलाये हुए है
खिड़कियों पर दस्तक हो रही है
कोई है
शायद तूफा़नी दस्तक हो
बिजली चमक रही है
बादल गरज रहे हैं
बूँदा बाँदी भी शुरु है
क्या हुआ
न आने का कोई तो कारण होगा
मैं फिर कोशिश करती हूँ सोने की
एक आखि़री प्रयास
सुब्ह होने से पहले
मुर्गे़ की बाँग से पहले
मंदिर की घंटियों के बजने से पहले
मस्जिद की अजा़न से पहले
चिडि़यों के चहकने से पहले
सबके जगने से पहले
आओ मेरे ख़्वाबों में
मेरे हबीब
मुझे सोना है
आखें कसैली हो रही हैं
आओ न ...............
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

No comments:

Post a Comment