Friday, 26 September 2014

एक अमृता और
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मैं जानती हूँ तुम क्या सोच रहे हो
ये जो तुम्हारे सोने का स्टाइल है
आँखें बंद
और आँखों पर
लापरवाही के हाथ
हा हा हा
तुम मुझे सोच रहे हो
देखो न तुम्हारी साँस धीमी चल रही है
और तुम खोये हो मुझमें
तुम सोच रहे हो मैं कहाँ हूँ अभी
तुम सोच रहे हो क्या खाया होगा मैंने
तुम जो कुछ सोच रहे हो मुझे पता है
आज भी तुम्हारी आहट सुनती हूँ मैं
आज भी महसूसती हूँ तुम्हारी छुवन को
उस गुलाब की खुशबू को
बंद किये बैठी हूँ आज भी
अपने जूडे़ में
जो तुमने आखरी रात दिये थे मुझको ।
साँसों की डोर पे
आज भी एक निशान बाकी हैं खुश्बूदार
तुम नहीं समझोगे
मैं जानती हूँ मुकम्मल तुझे
अपना होने से पहले और बाद भी
देखा है मैंने तुम्हारी नज़रों की डिबिया में
अपनी नज़रों का काजल
अपनी पलकों का सुर्मा
अब भी
कुछ सोचना बाकी न हो तो सो जाओ
रात काफी हुयी
फिर कल मुझे सोच लेना उठ कर
हम पास हैं तुम्हारे
बिल्कुल पास
सो जाओ ,सो जाओ,सो जाओ ।
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक अमृता और
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जी़नत ?
आज क्या लिखोगी ?
एक अमृता के साये से
एक जी़नत के साये के गुज़रन में
क्या खू़ब अंदाज़ है तेरे लिखने का
अमृता के साँचे में जी़नत का ढल जाना
यह कमाल बस तेरे ही पास है
तो फिर बताओ न
आज क्या है लिखने को तेरे मन में
मैं चाहती हूँ कि तू मेरी सुब्ह लिख
सुनहरा वक्त़ लिख
वो बहार लिख , वो खु़मार लिख
सारी की सारी अमृता लिख
और फिर आख़री लकीरों में
लिख दे मुकम्मल खु़द को तू
मुझे खुशी होती है जी़नत सच में
जब तुम लिखती हो अमृता को
जब तुम लिखती हो मेरे इमरोज़ को
जब तुम लिखती हो जी़नत को
जब तुम लिखती हो अपने........... को
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक अमृता और
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आज पता नहीं क्यूँ
चाह कर भी नहीं सो पा रही हूँ मैं
रात बीत रही है
आँखें कसैली हो रही हैं
और मैं सो भी रही, जग भी रही हूँ
अजीब सी कशमकश है
मैं अधूरी हूँ आज
मेरी आँखों के ख़्वाब तुम कहाँ हो
आओ न
मैं सोना चाहती हूँ
पूरी दुनिया सो चुकी
परिंदे भी सो गये
हम अकेले
आँखों में इंतजा़र के प्रेत की तरह
जग रहे हैं
हवा की साँय साँय
दिल दहलाये हुए है
खिड़कियों पर दस्तक हो रही है
कोई है
शायद तूफा़नी दस्तक हो
बिजली चमक रही है
बादल गरज रहे हैं
बूँदा बाँदी भी शुरु है
क्या हुआ
न आने का कोई तो कारण होगा
मैं फिर कोशिश करती हूँ सोने की
एक आखि़री प्रयास
सुब्ह होने से पहले
मुर्गे़ की बाँग से पहले
मंदिर की घंटियों के बजने से पहले
मस्जिद की अजा़न से पहले
चिडि़यों के चहकने से पहले
सबके जगने से पहले
आओ मेरे ख़्वाबों में
मेरे हबीब
मुझे सोना है
आखें कसैली हो रही हैं
आओ न ...............
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक अमृता और
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ये दिल की आरजू़ जो है
किसी दम कम नहीं होती
कभी जम जाती है दिल में
कभी आवारा फिरती है
मुसलसल जागती है ये
मुसलसल भागती है ये
सुनो ऐ मेरे मक़सद के खु़दा
इक बात ये दिल की
यही बस आरजू़ दिल की
यही है जुस्तजू दिल की
तुम्हारा और मेरा साथ हो
एलान करती हूँ
बस उसके बाद अर्मानों का क्या
बाकी़ न ग़म कुछ भी
सफ़र हो दूर का
तन्हाई हो और साथ तेरा हो
कोई बस्ती न राहों में पडे़
बिल्कुल हो सन्नाटा
कोई नगरी न रस्ते में पडे़
न शोरोगुल ठहरे
न कोई भीड़ हो अपने सफ़र में
कोई मेला हो
फ़क़त तू और मैं बस
आसमाँ ये चाँद सूरज हों
ज़मीं हो ,गर्द हो, सन्नाटा हो, तारे, सितारे हों
समाँ ये यारा हो जाये
तू भी आवारा हो जाये
तुम्हारा और मेरा भी
ये दिल बंजारा हो जाये
ये दिल बंजारा हो जाये
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक अमृता और
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रोशनदान पर यह गुटर गूँ का शोर
और उपर से तेरी जुदाई
जानलेवा है कमबख़्त
कबूतर को कौन समझाये
कोई इंतजा़र में है किसी के
गया था कह के लौट आऊँगा मैं
पता नहीं यह रात भी आज
लाख करवट टूटे
बिस्तर की सलवटों को
ख़्यालों के घोडे़ रौंदें
और यादों की ऐंठन में
ख़्वाबों की लपटन पिसती रहे
दीये की प्यास बुझाते बुझाते
सूख जाये आधी रात से पहले ही
तेल का पोखर
झींगुरों का गला ही बैठ जाये
सदा ए यार की जुंबिश में ।
हवाओं की साँस
वक्त़ के फेंफडे़ में छेद करते करते
थक जाए
और फिर भी तू न आये ।
गली के मुहाने पर
चौकीदार की आँखों में नींद भर आई है
वह सो चुका है
बेख़बर चाँद है
बद शक्ल बादल है
पस्त सितारे हैं
और एक मनहूस रात तेरे बिना
आज भी तू नहीं आया
फरयादी आस लगाये बैठी है
कबूतरों को कौन समझाए
रोशनदान वाले कमरे में ही
बैठी है एक मायूस कबूतरी भी
अपने कबूतर के लिये
जाने कब हो रोशनदान वाले कमरे में भी
गुटर गूँ ---------गुटर गूँ
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 18 September 2014

एक अमृता और 
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ऐ मेरी जि़न्दगी के होने की दलील ऐ मेरी साँसों के जा़मिन ऐ मेरी धड़कनों के साज़ ऐ मेरी रुहानी मक़बरे के मुजा़विर ऐ मेरी पलकों की थिरकन ऐ मेरी दुआओं के खु़दा ऐ मेरी चुनरी के शीकन ऐ मेरी बेपनाही के सुकून ऐ मेरी सुर्मेदानी की तीली ऐ मेरी सदाओं की वादी ऐ मेरी रगों के उफा़न ऐ मेरी मस्ती के झूले ऐ मेरी चादर की खूशबू ऐ मेरी स्याह रातों के दीपक ऐ मेरी राहत के सामान ऐ मेरी खु़शी के पासबान ऐ मेरी ख़्वाहिशात के अतरदान सुनो मेरी ज़बानी मेरी दास्तान किस्सा बस यूँ है मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूँ ।
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday, 16 September 2014

एक अमृता और ____________________
वाह रे मेरी उजली चादर हजा़र पन्नों की थान क्या खूब रही मेरी बिदायी क्या खूब दिया क़फ़न तुमने मेरा लिखना कितना पसंद है तुम्हें चलो तो फिर लिखती हूँ मैं क़्यामत तक के सफ़रनामे को एक कोना बचा रखूँगी फिर भी तुम आना तो अपनी कूची साथ लाना लिख जाना इश्किया रंगसाजी़ से अपने और हमारे बीच के रंग रंग को आसमान लिखूँगी सितारे टाकूँगी जड़ दूँगी कुछ चाँद बिठा दूँगी एक सूरज तुम सा, हू -ब- हू अल्फा़ज़ की सरसर हवाओं से लहरेदार लिखूँगी एक नज़म इश्कि़या मैं तो बाद मरने के भी तुझमें ही समायी बैठी हूँ रंगसाज़ यह सफेद क़फ़नी भी जानती है इस बात को तो क्यूँ न लिखू़ँ तुमको खुद को और हमारे तुम्हारे बीच के अटूट बंधन को एक खुशबू को एक हयात को एक कशिश को आना तो अपनी कूची साथ लाना और कुछ रंग भी मेरे रंगसाज़
----------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday, 15 September 2014

एक अमृता और _____________________
इमरोज़ ज़रा खिड़कियों को खोल दो मुझे गाना है गीत , मुहब्बत का दिलजले गुज़रेंगे पास से खिड़की के तो जलभुन मरेंगे और मैं तर जाऊँगी यह प्यार मेरा है ? प्यार मैं करती हूँ ? और ये दिलजले ------ हा हा हा हा मजा़ आता है मुझे जलावन को जलाने में हम तो ऐसे ही हैं और रहेंगे भी ऐसे ही किसी का चूल्हा जले तो जले धुआँ उठे तो उठे कल ही दरवज्जे पर मैं खडी़ थी जो भी गुज़रा पास से मेरे वो इक सवाल सा लगा मुझे मैं आँखें पढ़ती रही और इक खामोश मुस्कान मेरा जवाब था जानते हो इमरोज़ ? लोग जितनी ख़बर दूसरों की रखते हैं ? काश कि अपनी रख पाते । चलो छोडो़ बैठो मेरे पास सुनो कुछ पुराने गीत मैं गा रही हूँ तुम्हारे लिये तुम सामने बैठे रहोपलकें मेरी जम जाएँ 
हसरत कम न हो ,जब हार हम जाएँ …।
तुम्हीं कह दो ...........
___कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday, 14 September 2014

एक अमृता और
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इमरोज़
अरे ढूँढो न ?
कहाँ रख दी सारी कश्तियाँ
उफ़्फ़ मेरी रंग बिरंगी कश्तियाँ
बहुत प्यार से बनाया था मैंने
बहुत जतन से सहेजा था मैंने
देखो न मेरी किताबों के बीच ही हो
पुराने अख़बारो में भी ढूँढो न
बादल गरज रहे हैं छत पर
मुसलाधार हो रही है बारिश भी
आँगन में कितना पानी जमा हो गया है ?
उठो न इमरोज़
लाओ न ढूँढ कर मेरी कश्तियाँ
मैं तो हूँ नहीं जो फिर से बनाऊँगी
हा हा हा.... और तुम्हें ?..... हा हा हा
आती ही नहीं कश्तियाँ बनाने ।
मुझे दिखाओ न
मेरी कश्तियाँ बहाकर
मुझे खुश करो
मुझे खुश होना है
बरसात के गुज़रने से पहले
बादल के छँटने से पहले
आँगन के सूखने से पहले
मुझे मेरी कश्तियों के साथ
खुश होना है ।
उठो इमरोज़ उठो
यह सुहाना मौसम बीत न जाये
उफ़्फ़ उठो भी ।
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 11 September 2014

एक अमृता और
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तुझे और लिखने की जुस्तजू
तुझे और पढ़ने की आरजू़
तू तमाम लहजे में ज़ब्त है
तेरी आशिकी़ का कमाल है
तुझे देखने की हैं हसरतें
तू क़रीब तर ही बसा करे
यही दिल परिशाँ दुआ करे
मुझे अब न कुछ भी दिखायी दे
मुझे अब न कुछ भी सुनायी दे
तू ही तू हो मेरी निगाह में
यही फि़क्र मुझको हयात तक
मेरी साँस उलझे तमाम तक
कोई रास्ता हो न राह हो
वही आह हो वो कराह हो
कोई राह निकले न सुब्ह हो
मुझे इसका भी तो गि़ला नहीं
ऐ मेरी ख़लिश के हुजू़र सुन
मेरा होना तेरे ही साथ है
ये ज़माना जब भी पता करे
जहाँ तक हो उसकी तलाशियाँ
कोई शक्ल उभरे न अक्स हो
कोई नाम हो न वरक़ वरक़
तू ही तू लिखा हो ब्यान में
ये कलम की नोक रकम करे
मेरा इश्क़ तेरे ही साथ साथ
दिले बागबाँ का सफर करे
मुझे आह तेरी बिसात पर
कोई हादसा भी गुज़र करे
यही इक तमन्ना है उम्र भर
तेरा होके मैं फिरुँ ,दर-बदर
उसी अमृता की ज़बान में
यही नज़म लुत्फे़ ख़्याल है
ये है फि़क्र जी़नत की दास्ताँ
ज़रा देखें किस जा करे असर  ।
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday, 8 September 2014

एक अमृता और _________________
मैं जानती हूँ तुम्हें भी और तुम्हारे फ़न को भी मैं जानती हूँ तुम्हारी कूची और रंग को भी मुझे पता है तुम्हारी हर सोच और कैनवास की जादूई ताक़त कल रात तुमने माँगी थी न मेरी सारी नज़में तुम उतारना चाहते हो कैनवास के जीगर पर रंग बिरंगी तहरीरों के गुच्छे ओह इमरोज़............. इन सारी नज़मों के मेरे अंदर से आने उतरने और तहरीरी शक्ल लेने से पहले ही उफ़्फ़ पगले........ तुमने तो मुकम्मल मुझे रंग डाला था । नज़मसाजी़ से पहले ही रंग रंग रंग हुयी मैं । अब मेरी नज़मों में कौन सा रंग डालोगे ? बोलो ....बोलो न ।
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 4 September 2014

उसकी यादों का तराजू़ में तौल कैसे करुँ
इतना वज़नी है कि दिल बैठ बैठ जाता है
कमला सिंह 'ज़ीनत'
याद आता है तो कोहराम मचा देता है
हर तरफ सीने में मच जाती है अफ़रातफ़री
कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक मतला एक शेर
है चमन आज तेरा खा़ली आ
आ निकलकर कहीं से माली आ
मेरी ग़ज़लें पसंद हैं न तुझे
गा रही हैं तमाम डाली आ
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 3 September 2014

एक अमृता और _____________________________
आज एक दिन और सुब्ह की दस्तक और हर तरफ सन्नाटा। बाहर हो सकता है चिडि़यों ने शोर मचा रखा हो पर बंद कमरे में न तो हवा की सरसराहट है और न कोई हलचल एयर कंडिशनिंग माहौल की एक खूबी तो यह है ही एक हम ही हम हैं दुनिया में और कोई नहीं, ऐसा लगता है बस यह सोच लेना ही काफी है खूद से बातें करने के लिये । बेड पर बिखरी पडी़ है अमृता की आत्म कथा,नज़में,और अमृता कल कुछ पढा़ था और रह गया था अधूरा किताबों के चंद पन्नो में ही लपेट लेती है मुझे हर समय यह अमृता चलती रहती है बहती रहती है गुज़रती रहती है, पल पल एक मुसाफिर,एक नदी,एक रेलगाडी़ की तरह यह अमृता चाय बनाती हूँ पी लूँ,सिगरेट सुलगाती हूँ पी लूँ फिर पढूँगी वहाँ से अमृता को जहाँ कल रात छोडा़ था । आज शाम चाहती हूँ अमृता को और विस्तार से समझना और जानना आज जीऊँगी अमृता को इक जाम के बाद एक जाम के साथ जी भर पीऊँगी, क़तरा क़तरा उस फिलिंग्स को । चाटू़ँगी उसकी एक एक बूँद होश गँवाऊँगी,होश खो दूँगी आज तुझे तेरी आखों से पढ़ने को जी चाहता है अमृता, बहुत याद आ रही है उसकी मुझे, मैं बिल्कुल तंहा हू़ँ । वह बुलाने पर भी नहीं आ सकता जब उसकी मुझे ज़रुरत हो बहुत दूर है जिस्मानी वो और बहुत क़रीब है रुहानी वो तूने हर पल जिस तपाक से गुजा़रा है। अमृता जानना है मुझे,महसुसना है मुझे,अमृता मैं भी जीना चाहती हूँ तुम्हारी ही तरह एक एक एहसास को,एक जि़न्दगी को । मेरे पास आओ बिल्कुल पास किताबों के माध्यम से । मुझमें उतर जाओ, मेरा सरापा वजूद तुम हो जाओ या मैं तुम्हारे होने की दलील बन जाऊँ आज शाम मेरे रु ब रु आना हकी़कत की हम तुम्हारे साथ चियर्स करेंगे । इक खु़मार तुझमें, इक खु़मार मुझमें उतरेगा आज शाम मीना,पैमाना,जाम और एक शाम चलेगा खूब सिगरेट का दौर फिर एक सिगरेट,फिर एक सिगरेट और..............
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday, 2 September 2014

एक अमृता और ______________________
जी़नत ? आप कौन ? मैं अमृता आँखें मत खोलना बंद रखो मैं ख़्वाबों में आयी हूँ तुम्हारे आखें मत खोलना मुझे नहीं देख पाओगी सुनो मुझे,सिर्फ़ सुनो तुम आओ बातें करें वक्त बहुत कम है अच्छा लिख रही हो लिखती रहो मत करना परवाह ज़माने की मैंने भी नहीं किया तभी तो हूँ हर एक जे़हन में जि़न्दा कल तुम भी रहोगी मेरी तरह (जी़नत )(अमृता) कमला सिंह 'जी़नत 'बन कर और सुनाओ तुमने कुछ दर्द पाला है ? कौन है तुम्हारा इमरोज़ ? मेरे 'इमरोज़' सा दीवाना ,मस्ताना अरे बता मत बस मुस्कुरा दे कुछ सवालों के जवाब नहीं होते जानती हूँ सुन अगर उसमें कुर्बानी का जज़्बा है ? अगर उसमें कुछ सुनने का साहस है ? अगर उसमें तड़पन है ? अगर उसमें प्यार का समुंदर है ? अगर उसमें लाड़ है दुलार है प्यार है ? अगर उसमें फक्कड़पन है ? अगर उसमें सादगी है ? तो जान रखना वह तेरा (इमरोज़) ही है क्या नाम है उसका ? शर्मीली कहीं की ? बावली ,पगली जाने दे उसको आज जा़हिर मत कर रहने दे कल के लिये वह तुम्हारा आखि़री सवाल होगा और आखि़री जवाब भी लिखो हर मौसम के एहसास को हर मिलन की कहानी को लिखो हर रुत की दास्तान तहरीर करो काग़ज़ काग़ज़ उतर जाओ कल ज़माना पढे़गा तुम्हें मेरी तरह तुझ में कुछ बात है 'जी़नत' स्याही की आखि़री बूँद से लिखना नजा़क़त से उसका नाम मैं भी पढूँगी कल को सो जाओ गहरी नींद कल उठना तो ज़रुर लिखना मेरे बारे में मैं आयी थी तुझसे मिलने चलती हूँ सवेरा होने को है अब जाती हूँ अपने 'इमरोज़' के पास वह उठने ही वाला होगा मुझे उसकी सूरत तकनी है देखूँगी चाय की चुस्की पर उसके रुख की ऐंठन चलती हूँ सो जाओ कल तुम्हें उठना है मेरे साथ मेरे होने के एहसास के साथ (जी़नत)(अमृता)के इस मिलन को नया आयाम दो सो जाओ कल उठना तुम जी़नत(अमृता)
कमला सिंह 'ज़ीनत'