Tuesday 1 July 2014

 प्यार की बस्ती पुस्तक से एक ग़ज़ल 
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जो लोग फ़िक्रे अदावत में पलते रहते हैं 
वही ज़माने से दिन रात जलते रहते हैं 

जो गिर चुके हैं ज़माने में अपनी नज़रों से 
वह अपने आप ही गिरते संभलते रहते हैं 

जो हांडियां हैं खबासत की मोख्तसर लेकिन 
वह बुलबुले की तरह से उबलते रहते हैं 

जिन्हें न शिकवा है ग़ैरों से फ़िक्र है अपनी 
वह अपनी धुन में सरे राह चलते रहते हैं 

हसद के साथ जो भरते हैं दोस्ती का दम 
वह दोस्ती में भी पहलु बदलते रहते हैं 

जो चाहते हैं की बन जाए हम 'ज़ीनत की तरह 
नसीब देखो की वह हाथ मलते रहते हैं 
------कमला सिंह 'ज़ीनत'

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