Monday 13 October 2014

बुढ़ापा और अपनापन
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तुम्हारी झुर्रियों ने मुझे बताया है कि
आँखों से निकलते यह नमकीन मोती
ज्वार बनकर
छाती के बीचो बीच अंदर ही अंदर
एक समुन्दर चीर डाला है
रोज उसमे उतरती हो तुम
दर्द दर्द नहाती हो तुम
कलपती हो कसमसाती हो
और फिर लौट आती हो
अपने निराशा के डेरे में
वही मैले ,कुचैले ,फटे ,बिखरे
अपमान की एकांत कोठर में
पुरानी यादों के साथ उफ़्फ्
उन्हें ही पहनती हो तुम
उन्हें ही धोती और सुखाती हो तुम
हर रोज़ हर समय
और फिर
उन्हें सहेज कर लत्ती लत्ती
दिल की गुमनाम संदूक में छुपा देती हो
इन चिथड़न में बस्ती हैं तुम्हारी आशाएँ
कही कोई चुरा न ले इन्हें सजग रहती हो
भीड़ के बीच भी अकेली होती हो तुम
साथ चलती हैं तो सिर्फ़ और सिर्फ़
यादों की परछाईयाँ
रात के अँधेरे में निर्झर बहती आँखें से
गंगाजल प्रवाहित कर
करती रहती हो शुद्ध पवित्र आत्मा को
फिर से छिड़क छिड़क कर गंगाजल
पाक और साफ़ करती हो मन मंदिर को
अपनी उन पुरानी यादों के कपड़ों को
सिल सिलकर प्रतिदिन
पहनने लायक बनाने की
करती रहती हो नाकाम कोशिश
जबकि तुमको पता है की
वो कल फिर से चिंदी चिंदी हो जायेंगे  कल फिर से फट ही जायेगें
---कमला सिंह 'ज़ीनत

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