--------ग़ज़ल------------
ज़ख्म पे ज़ख्म लगा देता है सिलता भी नहीं
वो मसीहा कि तरह मुझसे तो मिलता भी नहीं
मैं चली जाती हूँ दामन में बहाराँ लेकर
इतना जिद्दी है वो गुल्शन में कि खिलता भी नही
तल्खियाँ ओढे हुए रहता है पत्थर की तरह
लाख सर मारुँ मैं ऐसा है कि हिलता भी नहीं
रोज़ ताने दे ज़माना मुझे "जीनत" लेकिन
दिल ये फौलाद के मानिंद है छिलता भी नहीं
कमला सिंह "जीनत"
ज़ख्म पे ज़ख्म लगा देता है सिलता भी नहीं
वो मसीहा कि तरह मुझसे तो मिलता भी नहीं
मैं चली जाती हूँ दामन में बहाराँ लेकर
इतना जिद्दी है वो गुल्शन में कि खिलता भी नही
तल्खियाँ ओढे हुए रहता है पत्थर की तरह
लाख सर मारुँ मैं ऐसा है कि हिलता भी नहीं
रोज़ ताने दे ज़माना मुझे "जीनत" लेकिन
दिल ये फौलाद के मानिंद है छिलता भी नहीं
कमला सिंह "जीनत"
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