Tuesday 14 April 2015

जिन्हें नहीं है अभी तक बलंदियों का पता
वो फा़ख़ते को उडा़ने की बात करते हैं
भटक रहे हैं जो सहरा में बे-सरो सामान
वो हमसे गाँव बसाने की बात करते हैं
चल तू है शाहे जहाँ या सिराजुद्दौला है
हमारे साथ फ़क़त मेरा अपना मौला है
बस इतनी बात पे हारी नहीं हूँ जंग कोई
तराजू़ खुद को बनाया है और तौला है
दुआ करो कि बला आए भी तो टल जाये
हर एक हादसा दामन बचा के चल जाये
परिंदे छोटे - बडे़ सब हैं आसमानों के बीच
उडा़न उतनी ही रक्खो कि पर न जल जाये
सहम के बैठते हिम्मत जो हार जाते हम
ये सच है भीड़ के क़दमों तले कुचल जाते
सिसकते रहते कहीं घर के एक कोने में
मचलती अपनी ही नाकामियों से जल जाते
जब क़दम हमने निकाला घर से
सारी नाकामियाँ मरीं डर से
जब उडी़ हौसले का पर लेकर
धूल सब झड़ गयी मेरे पर से
डा.कमला सिंह 'ज़ीनत'
क़लम उठाते ही मंज़र निचोड़ सकते हैं
नज़र के ज़र्ब से काग़ज़ मरोड़ सकते हैं
तमाम उम्र ग़रीबी पे मैने लिक्खे हैं शेर
पडे़ जो वास्ता पत्थर भी तोड़ सकते हैं

Sunday 12 April 2015

चार मिसरे
अपने ग़म को भूलाते रहे रात दिन
ग़म को खुद से छुपाते रहे रात दिन
दिल न हो जाये मायूस बस इसलिए
बे - सबब मुस्कराते रहे रात दिन

Friday 10 April 2015

-------नज़म ----------
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(कुछ नहीं वो ,फकत किताब सा है )
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रात दिन जिसकी जुस्तज़ू है मुझे 
जो मेरे साथ साथ रहता है
जो मेरे साथ साथ चलता है
ढल के मासूम सा अल्फ़ाज़ों में
मखमली वर्क पे मचलता है
जो तख़य्युल में है खुश्बू बनकर
जिसका होना सुकून देता है
रात आँखों में बसर होती है
दिन गुज़र जाता है हवाओं सा
एक एहसास सुरसुरी बनकर
दौड़ा फिरता है पहलु से मेरे
एक सिहरन सी उठती रहती है
काँप जाती है मेरी पूरी हयात
सारे औराक़ जलने लगते हैं
फ़िक्र खो देता है खुद अपना हवास
सुर्ख हो जाती हैं आँखें थककर
मैं लरज़ जाती हूँ सर से पॉ तक
जागती आँखों में वो ख्वाब सा है
ये हक़ीक़त है माहताब सा है
ये हक़ीक़त है आफताब सा है
ये हक़ीक़त है लाजवाब सा है
कुछ नहीं वो ,फ़क़त किताब सा है
कुछ नहीं वो ,फ़क़त किताब सा है
--------कमला सिंह ज़ीनत

Monday 6 April 2015

एक ग़ज़ल पेश है 
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फ़िक्र बनकर जो तख़य्युल में मचल जाता है 
मेरी  ग़ज़लों के   वो  अशआर  ढल  जाता है 

जब  नहीं  होता  कोई  शेर मुक़म्मल मुझसे 
ऐसी  हालत  हो तो लफ़्ज़ों में  बदल जाता है 

कितना दिलकश है वो वल्लाह मेहरबाँ मेरा 
वादी-ए-फ़िक्र  में  चश्मे  सा उबल जाता है 

यूँ तो इक बुत है वो पत्थर की सिफ़त है उसमें 
बर्फ़  के  जैसा  मुझे  देख  पिघल  जाता  है 

मेरी  राहों   में  चराग़ों  की   तरह  है   मामूर 
जब  भी  होता है अन्धेरा तो वो जल जाता है 

लिपटी रहती है फ़क़त उसकी ही यादें 'ज़ीनत'
इस  तरह  दिल  मेरा  ऐसे  में  बहल जाता है 
-----डा.कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday 3 April 2015

एक रुमानी शेर
वो मुझसे पूछ रहा था पता ठिकाना मेरा
लकीरें खींचकर एक दिल बना दिया मैंने
चार मिसरे
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ज़मीन ओढ़ने वाला कहीं पे सो लेगा
मिलेगा कोई जो अपना तो खू़ब रो लेगा
तेरे निजा़म में हक़ बोलना नहीं वाजिब
हमारे सामने मिट्टी का घर भी बोलेगा
--डा.कमला सिंह 'ज़ीनत'
मेरी एक ग़ज़ल पेश है
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इस सतह तक उतर नहीं सकते
हम तो आपस में लड़ नहीं सकते
कर तो सकते हैं प्यार की खेती
ज़हर धरती में भर नहीं सकते
सरहदों पर है जान सौ कुर्बान
पीठ दिखला के मर नहीं सकते
जिससे नफरत का ज़ेहन बनता हो
उन किताबों को पढ़ नहीं सकते
जिनकी फ़ितरत में चालबाज़ी हो
लोग ऐसे सँवर नहीं सकते
दाम पे दाग़ जिससे हो 'ज़ीनत'
काम ऐसा भी कर नहीं सकते
------डा.कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday 1 April 2015

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों
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दिल को ज़ख़्मी ही जो करना था तो आये क्यूँ थे
हमको ऐ दोस्त तमाशा सा बनाये क्यूँ थे
जब मुहब्बत की तुझे जंग नहीं लड़नी थी
ये अलम प्यार का ऐसे में उठाये क्यूँ थे
मेरी बरबादी में कुछ हाथ तुम्हारा जो न था
ये तो बताओ तो ज़रा मुँह को छुपाये क्यूँ थे
मेरे अरमानों को गर दिल में बसा रखा था
फिर यतीमों की तरह उनको सताए क्यूँ थे
आग इस दिल की बुझाने के लिए हो मसरूफ़
गर यही शौक था फिर आग लगाए क्यूँ थे
इतना 'ज़ीनत' को बता दे ज़रा मोहसिन मेरे
जुल्म इस तौर का मज़लूम पे ढाये क्यूँ थे
---डा. कमला सिंह 'ज़ीनत'
चार मिसरे
ज़मीन ओढ़ने वाला कहीं पे सो लेगा
मिलेगा कोई जो अपना तो खू़ब रो लेगा
तेरे निजा़म में हक़ बोलना नहीं वाजिब
हमारे सामने मिट्टी का घर भी बोलेगा