पत्ते ज़र्द हो गए जुदा होकर, वृक्छ की शाख से,
'भभकती लॊ'की रौशनी बुझ सी गयी हो जैसे राख से,
हम सोचते ही रह गए जिंदगी की अनसुलझी पहेली,
मैं तनहा क्यों हूँ आज भी इस महफ़िल ऐ साज़ से।
patte zard ho gaye juda hokar vrich ki shaakh se
bhabhakti lau ki roshni bujh gayi ho jaise rakh se
hum sochte reh gaye zindgi ki unsuljhi paheli.
mai tanha kyu hun aaj bhi is mehfil-ai saaz se ....
................................................kamla singh जुदाई
bahut khoob.....!!
ReplyDeletekamal kar diya Kamla Singh ji..!
laazwab..........!
वाह बहुत ही सुन्दर रचना चित्र को सुन्दरता से परिभाषित किया है आपने बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteसुन्दर रचना, हम सोचते ही रह गए जिंदगी की अनसुलझी पहेली, मैं तनहा क्यों हूँ आज भी इस महफ़िल ऐ साज़ से
ReplyDeleteयही तलाश है....जो भटकाती है ....सुंदर भाव !
ReplyDeleteप्रश्न अनुत्तरित है ,अभिव्यक्ति अच्छी
ReplyDeleteअनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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सुंदर रचना में गजब के भाव. बधाई कमला जी
ReplyDeleteकमला जी अपने भावों को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है | बधाई
ReplyDeleteराम किशोर उपाध्याय
aap sabhi ki aabhari hu mai tahe dil se , meri rachna ke liye
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