Sunday 2 August 2015

मेरी पुस्तक की एक और ग़ज़ल 
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जब सितम मेरे नाम आ गए 
ज़ख्मे दिल मेरे काम आ गए 

ख़ुश्क   होठों  ने  आवाज़  दी 
शैख़ खुद  लेके  जाम आ  गए 

ज़ुल्म रावण का जब बढ़ गया 
काफिला  लेके  राम   आ  गए 

सुब्ह  देखी   नहीं   उम्र   भर 
आप  भी  लेके  शाम  आ गए 

बादशाहों  ने     की    साज़िशें 
हासिये   पे  गुलाम  आ   गए 

चलिए 'ज़ीनत'  करें  गुफ़्तगू 
आपके  हम  कलाम  आ गए 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

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