Monday, 31 August 2015

पिघल ही जाओ ऐ ज़ीनत कि उसकी लाज बचे
जुनूँ में आके तुझे मोम कह दिया उसने



कहा है उसने सभी से की खुशबूदार हूँ मैं
महक रही हूँ वो सच्चा शुमार हो जाए



बग़ैर पूछे मुझे लिख लिया है उसने अगर
उसी का हिस्सा हूँ लिख दो क़रारनामे में




दुआ ये है उसे जुगनू बना के ऐ मालिक
तमाम सुब्ह के बदले में रात दे मुझको



उसी से पूछिए रखता कहां कहां है मुझे
वही है डाकिया मेरा पता बतायेगा
कमला सिंह ज़ीनत

Sunday, 30 August 2015

एक अमृता और - ( भाग -2 )
आया था कल भी
यादों का डाकिया
दे गया था ख़त 
तुम्हारे नाम का
बेचैन रूह ने पढ़ा
बेचैन रूह की तड़प को ।
मिल गया मुझे हू ब हू
जो भेजा था तुमने
एहसास के गीले लिफाफ में।
आह भरते हुए लफ्ज़
बे-तरतीब बिखरे लम्हे
टूटती बनती लकीरों की तस्वीरें
सब कुछ ।
सुनो ....
ऐ मेरे नसीब
तुम्हारी ही तरह
इन एहसासों को
सीने से लगाये
आज भी ज़िंदा हूँ मैं
तुम्हारे लिए
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारे लिए
....कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 28 August 2015

एक अमृता और -( भाग -2 )
जिस दिन की थी तुमने वो शिकायत
किसी की नज़दीकी
ज़र्रा बराबर भी तुम्हें मंज़ूर नहीं...उफ्फ़
उस दिन बहुत किया था मैंने
तुमसे तकरार
पर सच मानो
मुझे बहुत ही अच्छा लगा था
तुम्हारा यही अधिकार तो भाता है मुझे
मुझे तुम्हारी क़ैद चाहिए रिहाई नहीं
तुम्हें मेरा उड़ना भी पसंद है और
हवाओं से मिलना भी मंज़ूर नहीं
हा..हा..हा... क्या बोलूँ मैं
सुनो तुम्हारी नाराज़गी जायज़ है
पर ज़िन्दगी की तलवार की धार भी
इधर बहुत तेज़ है
जब भी हमारे और उठे गरदन के बीच
स्वाभिमान का टकराव होगा
लहू चाटती हुई लाश
मर्सीया पढ़ने को तरसेगी
बस भरोसा रखना, ऐतबार करना
हम तुम्हारे हैं और तुम्हारे ही रहेंगे पगले
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday, 24 August 2015

एक अमृता और - ( भाग -2 )
आसरे के महल में
इंतज़ार की उस कोठरी के सामने
अचानक मेरी नज़र 
जाकर टकराई है
ओसारे के कोने में टंगी
एहसास की उस पोटली पर
कभी रख छोड़ी थी जो तुमने
एहसासों की खुशबू मुहरबंद
हू ब हू उसी खुशबू की लिप्टन बटोरे
बंधी रक्खी हैं आज तक
अब तक और अभी भी वो पोटली
ओसारे में टंगी पोटली खूब तरो ताज़ा है
शायद तुम्हारा ही छुअन बाकी है उसमें
आओ कभी खोलें
पोटली की बंद गिरह को
और फिर से एक खुशबू बंद कर दें अपनी
ताकि फैलती रहे सदियों तक
हमारे होने की खुशबू
--कमला सिंह 'ज़ीनत'
शेर
फूलों की बात करके खुशबू का ज़िक्र कर के
हम रह गए सिहर के हम रह गए बिखर के
एक शेर
पानी में गिर के जैसे ,गल जाये है बताशा
यह खेल ज़िन्दगी है यह ज़िन्दगी तमाशा
शेर
पल पल के हादसों पर छाले बहा रही थी
इक आग ज़िन्दगी थी उसको बुझा रही थी
मुक्तक
मैं दरवाज़े पे बैठी हूँ मुझे अंदर बुला माई
लगी है भूक मुझको प्यार से तू फिर खिला माई
खुदा से बोल के ज़ीनत की ख़ातिर आजा धरती पर
वही लकड़ी पर बैठी आंटे की चिड़िया बना माई
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday, 22 August 2015

एक शेर
मुझसे मत पूछिए ठिकाना मेरा
खुदमें रहकर भी अब नहीं रहते
कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक शेर
कुछ बचे हैं वो अपने ग़म दे दे
मैंने कब मांगा था मरहम दे दे

Wednesday, 19 August 2015

एक अमृता और...( भाग-2)
____________________________
आज रात भी एक तूफान उठा था
यादों के समुन्दर में
ज़ोरदार हलचल मची हुई थी
गीला गीला पड़ा था
सारा का सारा मंज़र
सर से पांव तक नमी ही नमी पसरी थी
और बिखरा पड़ा था वजूद
सब कुछ अलसाया, बेजान
पल पल यादों की कतरनें बटोरती मैं
लहूलहान थी रात भर
ख़्वाबों वाली अलमारी खुली पड़ी थी
समुन्दर की बेलगाम लहरें
बहा ले गईं सब कुछ
मेरे हिस्से की वो हर रात गवाह है
लो देखो मेरी मुट्ठी में क्या है
यह ख़राशें
कुछ कतरनों को बचाने की ललक में उभरी हैं
ज़रा सूरज को बुलाते आना
तुम भी साथ ही आना
इश्क़ की अलगनी पर टांग दिया है मैंने
बची बचाई यादों की कतरनें
यह ख़ज़ाना तुम्हारा है
यह दौलत तुम्हारी है।
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 13 August 2015

मेरी एक ग़ज़ल पेश है 
-----------------------------
ज़िंदगी   मैंने  गुज़ारी  है  सुराबों  की  तरह 
मैं  चटकती  रही  मानिंद  हुबाबों  की  तरह 

बेनियाज़ी  का  अलम देखिये  इस  दर्जा   है 
मुझको बे ज़ौक वो पढ़ता है किताबों की तरह 


शुक्र  करती  हूँ मैं पर मेरा  मुक़द्दर कुछ और 
ग़म  उतरता  है  शबो-रोज़  अज़ाबों  की तरह 

खूबसूरत    लिए   अंदाज़   कई   रंगत    में 
मुझसे तोहमात लिपटते हैं  हिजाबों  की  तरह 

रौनके खुश  लिए  आता है जो  अपना बनकर 
सुब्हे -दम  टूटने लगता है वो ख़्वाबों की  तरह 


यूँ तो 'ज़ीनत' तेरी क़िस्मत को है करना बदनाम 
ज़ाहिरन   मेरी  लकीरें   हैं   सवाबों  की    तरह 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday, 10 August 2015

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है 
----------------------------------
गीत  जैसा  है  वो  गुंजन  जैसा 
मिस्ले खुशबू है वो चन्दन जैसा 

एक  रिश्ता  अजीब  है  उससे 
मुझमें  रहता है वो बंधन जैसा 

लिपटा  रहता  है  वो  कलाई से 
और खनकता  है वो कंगन जैसा 

उसके होने का है एहसास मुझे 
मेरे  होठों  पे  है  चुम्बन  जैसा 

बेखुदी   में    मुझे  भिगोता   है 
वो बरस  जाता  है सावन  जैसा

उससे 'ज़ीनत' बहुत है प्यार मुझे 
दोस्त लगता है वो बचपन जैसा  
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday, 8 August 2015

'एक अमृता और' की एक नज़्म 
'बोलो न कैसे लिखूं'
--------------------------------
मेरे सारे ख़्याल 
इबादत को तैयार हैं  हाथ बांधे 
कागज़ की मखमली चादर पर 
ख़्यालों की सफ़बंदी   है 
क़लम की नियत में बस तू 
लगातार मैं और तू के बीच 
गुज़र रही है एक सनसनी 
सिहरन सी सलवटों में 
टूट रही हूँ मैं 
टुकड़े-टुकड़े ,हिस्से-हिस्से 
बिखरी पड़ी हूँ मैं 
इस गहराई को कैसे लिखूं 
बहुत तूल है इसके अंदर 
बोलो न कैसे लिखूं 
बोलो न कैसे लिखूं 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 5 August 2015

मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
----------------------------------
खूबसूरत   कोई    रिश्ता रखिये 
कुछ तो इंसानियत ज़िंदा रखिये 

वक़्त  के  साथ  सब  फ़ना  होंगे 
ख़ुद को जैसे भी हो लिखता रखिये 

लोग  आएंगे  कई  कल  के साथ 
मख़मली खुशनुमा रिश्ता रखिये 

रूह  निकलेगी  कब किसे मालूम
हो  सके  कारवाँ  चलता   रखिये 

महफ़िलों  में  सुख़नवरों  के साथ 
आप  भी आपको  दिखता रखिये  

शोख़ कलियों में आप भी 'ज़ीनत' 
ज़िंदगी  भर यूँ  ही महका रखिये 
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
ख्वाहिशें ये नहीं कि याद करे फिक्र है हिचकियाँ नहीं आतीं
वो जहाँ भी रहे सलामत हो लौट कर तितलियाँ नही आती
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Monday, 3 August 2015

दोराहे से चौराहे तक चेहरा ही बस चेहरा है
दीवारों से दरवाज़े तक इक उसका ही पहरा है
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday, 2 August 2015

मेरी पुस्तक की एक और ग़ज़ल 
--------------------------------------
जब सितम मेरे नाम आ गए 
ज़ख्मे दिल मेरे काम आ गए 

ख़ुश्क   होठों  ने  आवाज़  दी 
शैख़ खुद  लेके  जाम आ  गए 

ज़ुल्म रावण का जब बढ़ गया 
काफिला  लेके  राम   आ  गए 

सुब्ह  देखी   नहीं   उम्र   भर 
आप  भी  लेके  शाम  आ गए 

बादशाहों  ने     की    साज़िशें 
हासिये   पे  गुलाम  आ   गए 

चलिए 'ज़ीनत'  करें  गुफ़्तगू 
आपके  हम  कलाम  आ गए 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday, 1 August 2015

4 - मिसरे
झूट की ये रौनक़ है झूट के ही चर्चे हैं
गौ़र से ज़रा पढि़ये बेबसी के पर्चे हैं
दिख रहा है जो साहब सिर्फ़ पर्देदारी है
दर्द के मुखौटे पर बस खुशी के पर्दे हैं
कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक शेर ताज़ा
हमारी सुरमई रातों की शाख पर अक्सर
तुम्हारी यादों के जुगनू मचलते रहते हैं