Monday, 16 October 2017

दिवाली
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मुझे वो दिवाली दोगे तुम ?
जहाँ बचपन की मेरी फुलझडी़
बिना छूटे 
मेरी फूँक के इंतजा़र में
मायूस पडी़ है ?
मुझे वो आंगन दिलाओगे तुम ?
जहाँ मेरी साँप लत्ती की टिकया
आधी अधूरी फूंफकार कर सोई पडी़ है
मेरा वो धरौंदा ही दिला सकते हो ?
जिसके सामने मेरे बाबा
पलथी मारे मुस्का रहे हों
और अम्मा टकटकी बाँधे
मुझे निहार रही हो
मुझे वो बताशे के गुड्डे
लाई की उजलाई
चाशनी की चिडि़या
मोम का बतख सब चाहिये
मुझे बचपन चाहिये
मुझे बस वो दिवाली चाहिये।
—कमला सिंह ‘ज़ीनत’