Sunday, 24 January 2016

जो भी फुटपाथ के किनारे हैं
वे फ़क़त मुफ़्लिसी के मारे हैं
मर ही जाते गरीब ठंडक से
जी रहे आग के सहारे हैं
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday, 23 January 2016

हैं गुरबत के मारे चुभन तापते हैं
लगाकर कलेजे से मन तापते हैं
कुहासे में फुटपाथ पर बैठे बैठे
वे तन को तपाकर बदन तापते हैं
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 21 January 2016

हर एक ख़्वाब को आँखों में मार बैठे हैं
ख़्याल- ए- यार का चश्मा उतार बैठे हैं
कभी लगाया था सीने में इश्क़ का पौधा
हम अपने हाथों से उसको उजाड़ बैठे हैं
_____कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday, 19 January 2016

फन रखिये फनकार भी रहिये
मुश्किल में तलवार भी रहिये
जोगन बनना खूब है लेकिन
पायल की झनकार भी रहिये
खुद से भी गर मिलना हो तो
आपस में दीवार भी रहिये
लोगों से मिलना हो जब भी
लहजे से तहदार भी रहिये
मेहनत करना ठीक है लेकिन
कुछ लम्हे बेकार भी रहिये
परखना जब भी था अपने बिसात पर परखा
उन पत्थरों को भी शीशे के हाथ पर परखा
आह शबनम से भी फूलों का जीगर जलता है
उफ दुआओं से फरिश्तों का भी पर जलता है
पत्थर को जांचने का तरीका बना लिया
खुदको इसी ख्याल से शीशा बना लिया

Sunday, 17 January 2016

एक मतला एक शेर
जब भी यादों के उस वतन में रही
एक खुशबू लिये बदन में रही
वो सितारे सा जगमगाता रहा
मैं ख़्यालों के अंजुमन में रही

Saturday, 16 January 2016

एक मतला दो शेर
बात ही बात पे गुस्सा न किया करना तुम
लहजा शींरीं रहे तीता न किया करना तुम
लफ़्ज़ फा़हे की तरह रखना जहाँ भी रखना
गुफ़्तगू को कभी शीशा न किया करना तुम
खु़दको ढाला करो तुम की़मती टकसालों में
जि़ंन्दगी को मगर पैसा न किया करना तुम
एक मतला एक शेर
मुझसे क्यों पूछते हो क्या है वो
मेरी नस - नस में चल रहा है वो
कह दो काफि़र कबूल है मुझको
कह दिया न मेरा खु़दा है वो
मामूल
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काग़ज़ पे लिखती हूँ
खूब सारा नाम उसका
चूमती हूँ 
सीने से लगाती हूँ
पुर्जे़ पुर्जे़ करती हूँ
गौ़र से निहारती हूँ
खूब दुलारती हूँ
फिर बैठकर तसल्ली से
हर पुर्जे़ को मिलाती हूँ
लफ्ज़ लफ़्ज़ जोड़ती हूँ
बडे़ नाज़ से पढ़ती हूँ
यही कुछ काम रोजा़ना मैं करती हूँ।
किस तरह उसको निकालूँ जे़ह्न से मुश्किल है वो
कुछ भी मैं सोचा करुँ हर सोच में शामिल है वो
कमला सिंह 'ज़ीनत'



सभी को देती है गर्मी बराबर जिस्म से अपने
किसी इंसान से इस आग ने मज़हब नहीं पूछा
एक ग़ज़ल हाजि़र दोस्तो
वस्ल-ए-महबूब इस क़दर फ़ड़के
उसको सोचूँ नज़र -नज़र फ़ड़के
चलते - चलते वो याद आता है
शाख़ झूमे शजर - शजर फ़ड़के
जिस्म बेहाल करता जाता है
वो रग- ए -जाँ में बाअसर फ़ड़के
जिस जगह जाऊँ साथ चलता है
उसके होने का ही असर फ़ड़के
हाल करना ब्यान मुश्किल है
कैसे बतलाऊँ किस क़दर फ़ड़के
जब भी यादों के पाँव थकते हैं
वो पसीने सा तर- ब -तर फ़ड़के
"जी़नत"उसके बगै़र क्या चलना
वो रहे साथ तो डगर फ़ड़के
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 15 January 2016

एक ग़ज़ल हाजि़र दोस्तो
वस्ल-ए-महबूब इस क़दर फ़ड़के
उसको सोचूँ नज़र -नज़र फ़ड़के
चलते - चलते वो याद आता है
शाख़ झूमे शजर - शजर फ़ड़के
जिस्म बेहाल करता जाता है
वो रग- ए -जाँ में बाअसर फ़ड़के
जिस जगह जाऊँ साथ चलता है
उसके होने का ही असर फ़ड़के
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 13 January 2016

सभी को देती है गर्मी बराबर जिस्म से अपने
किसी इंसान से इस आग ने मज़हब नहीं पूछा
चार पंक्तियाँ
नुक्कड़,चौक,चौराहों पर सब,लकडी़ खू़ब सजाए है
जाडे़ के मौसम में मिलकर , ऐसे आग जलाए है
चारों ओर से आग को घेरे , बैठें तो यूँ लगता है
पंडित आग की कसमें खाए ,मुल्ला शपथ उठाए है
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 8 January 2016

मौत भी आती है कुछ इस तरह मर कर देखो
अपना कहते हो जिसे उनसे बिछड़ कर देखो
कमला सिंह 'ज़ीनत'
अजीब जंग मैं लड़ती हूँ अपने आपसे रोज़
उसे जिताने की कोशिश में हार जाती हूँ