मामूल ------------------ काग़ज़ पे लिखती हूँ खूब सारा नाम उसका चूमती हूँ सीने से लगाती हूँ पुर्जे़ पुर्जे़ करती हूँ गौ़र से निहारती हूँ खूब दुलारती हूँ फिर बैठकर तसल्ली से हर पुर्जे़ को मिलाती हूँ लफ्ज़ लफ़्ज़ जोड़ती हूँ बडे़ नाज़ से पढ़ती हूँ यही कुछ काम रोजा़ना मैं करती हूँ।
नुक्कड़,चौक,चौराहों पर सब,लकडी़ खू़ब सजाए है जाडे़ के मौसम में मिलकर , ऐसे आग जलाए है चारों ओर से आग को घेरे , बैठें तो यूँ लगता है पंडित आग की कसमें खाए ,मुल्ला शपथ उठाए है
कमला सिंह 'ज़ीनत'
Friday, 8 January 2016
मौत भी आती है कुछ इस तरह मर कर देखो अपना कहते हो जिसे उनसे बिछड़ कर देखो
कमला सिंह 'ज़ीनत'
अजीब जंग मैं लड़ती हूँ अपने आपसे रोज़ उसे जिताने की कोशिश में हार जाती हूँ