Friday, 23 December 2016

 मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले  
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आज  की  रात तू  ज़हर  कर दे 
ज़िन्दगी  मेरी  मुख़्तसर  कर दे 

या तो मुझको तमाम कर खुद में
या तो खुद को  मेरी नज़र कर दे 

उम्र   अपनी  मेरी  मुहब्बत   में 
एक  सजदे  में तू  बसर  कर दे   

मैं   तुझे  चाहती  हूँ  ऐ  ज़ालिम 
तू  ज़माने  को  ये  खबर  कर दे 

नाम  से   तेरे   जानी  जाऊँ  मैं 
मुझपे बस इतनी सी मेहर कर दे 

कुछ न हो सके तो 'ज़ीनत' के लिए 
आ  मेरी  पुतलियों को तर कर दे 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 22 December 2016

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों आपके हवाले 
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देखा है ज़िन्दगी को  कुछ  इतने करीब से 
नफरत सी हो गयी है अब अपने नसीब से 

जो भी  मिला  था टूट गया गिर के हाथ से 
होते   रहे  हैं  हादसे  बिलकुल  अजीब  से 

हँस कर सहे तमाम हर एक ज़ुल्म बार-बार 
फिर भी  मिले  हैं  ज़ख्म हज़ारों  रक़ीब से 

ज़ख़्मी  हैं जिस्म  सारे फ़फ़ोले हैं हर जगह 
शिकवा  नहीं  है कोई भी  अपने तबीब से

ऐ ज़िन्दगी  बयान करूँ भी  तो किस तरह 
क्या-क्या मिली  निशानियाँ दस्ते-हबीब से  

'ज़ीनत' ग़ज़ल  में  ढाल दिया  दर्द बेशुमार 
लहजे  की चाह  रखती  हैं गज़लें अदीब से 
-----कमल सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 28 September 2016

यादों के उस पार गई मैं
जीत गई या हार गई मैं
--कमला सिंह "जी़नत"



यही  है आरज़ू  दिल की यही दिल का फ़साना है 
उसी बचपन की यादों को मुझे फिर से सजाना है 
ख़ुदाया  ज़िंदगी  पिछली  मुझे लौटा  दुआओं में 
मुझे  है  दौड़ना जी  भर,मुझे चरखी  नचाना   है 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 21 September 2016

आज फिर मेरी ग़ज़ल आप सबके हवाले 
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न तख़्तों -ताज ,नशेमन न गुहार माँगेंगे 
उठा  के  हाथ  दुआओं  में  असर  माँगेंगे 

ख़िजाँ  के साथ गुज़ारी है ज़िन्दगी अपनी 
बहार  आएगी  तो  हम  भी  समर माँगेंगे 

अभी  तो  पाँव  के  नीचे  ज़मीन  ठहरी है 
संभल तो जाने दे फिर,ख़ुद ही समर माँगेगे 

मेरा  ज़मीर अभी  कह के मुझसे लौटा है 
वतन पे आँच जो आएगी तो सर माँगेंगे 

चमन उजड़ गए तामीर हो गए हैं  शहर 
परिंदे  लौट  के आएँगे तो ,घर  माँगेगे 

क़बूल 'ज़ीनत'  गर 'तूर' की ज़्यारत हो 
दबी  ज़बान  से 'मूसा' की नज़र माँगेंगे
-----कमला सिंह 'ज़ीनत' 

Thursday, 21 July 2016

ताक बाती दीया उसी का है सब
वह जलाये बुझाये मर्जी- ए -रब
कमला सिंह 'ज़ीनत'


दो चार दिन ही बच गये मंजि़ल के हूं करीब
पीछे अब मुड़ के देखूं या आगे सफर करुं
कमला सिंह 'ज़ीनत'


मसअला सामने है पेचीदा फैसला भी नहीं उतरता है
पीछे वाला पुकारता है मुझे आगे वाला इशारे करता है
कमला सिंह 'ज़ीनत'


पर झुलसने की गर कहानी है
फिर तो परवाज़ आसमानी है
कमला सिंह 'जी़नत'


काफिर शुमार करके सही शैख मोहतरम
बुत मेरा मेरे साथ ही रखियो कफन तले
कमला सिंह 'जी़नत'


दो पल
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बस खेल तमाशा है
मेला है ये दो पल का
जीवन जिसे कहते हैं
खुद आग लगाये हम
चढ़ते हैं बलंदी पर
इक मौत का कुआं है
जिस कुऐं में इक दिन हम
इस मेले झमेले में
इस खेल तमाशे में
कल कूद ही जायेंगे
कल दूसरे आयेंगे
जो खेल दिखायेंगे
हम हाथ मले तन्हा
इस दुनिया ए फानी से
कहते हुए जायेंगे
बस खेल तमाशा है
मेला है ये दो पल का
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday, 19 July 2016

मेरी एक ग़ज़ल 
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जब मुहब्बत के परिंदे को जी पर लगने लगा 
जाने क्यों  ऐसे  में अपनों से डर  लगने लगा 

प्यार जब हो गया तो ,फ़ितरतन ख़ामोश रही 
एक सुनसान सा मेरा  भी ये घर  लगने लगा 

होश  क्यों  खोती रही  उसके तसव्वुर में भला 
मुझको ये  तो मुहब्बत  का असर लगने लगा

जानी दुश्मन वो  मेरे  होश का आया ज़ालिम  
जिस्म एकदम से मेरा ऐसे में तर लगने लगा 

नींद  उड़  जाती  है आँखों  से थकन ओढ़े हुए 
जाके तकिए से परीशान - सा सर लगने लगा 

देखती  जब  भी  हूँ  'ज़ीनत'  ये  नज़ारा कोई 
टूटा बिखरा हुआ अपना ही ये दर लगने लगा 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 15 July 2016

चूर होकर जो दम -ब- दम उतरे
साथ कोई क़दम क़दम उतरे
उन ख़यालों की सीढियां चलकर
रफ़्ता रफ़्ता सँभल के हम उतरे
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 14 July 2016

मेरी एक ग़ज़ल हाज़िर है आप सबके हवाले 
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इश्क़  में तेरे क्या  हो गयी 
मुस्तक़िल  इक  दुआ  गयी

इक चमन की मोहब्बत में मैं 
हाय  बाद- ए -सबा  हो  गयी 

बनके  तितली सी उड़ती रही 
इक  मुकम्मल हवा हो  गयी 

मेरी   खुशियों   यूँ  देख  कर 
ज़िंदगी  भी  फ़िदा  हो   गयी 

उसको  पाते  ही  मैं   बा-ख़ुदा
आज  ख़ुद  से  जुदा  हो  गयी

आज 'ज़ीनत' ग़ज़ल आपकी 
सुर्ख़  रंग- ए -हीना  हो  गयी   
---'कमला सिंह  'ज़ीनत'

Monday, 11 July 2016

मेरी एक ग़ज़ल 
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आग   खुद  में  लगाए  हुए हैं 
दिल  में   उसको  बसाए हुए हैं 

उसकी  सरकार में इक सदी से 
अपने  सर को  झुकाए  हुए हैं 

जिसको होती नहीं मैं मयस्सर 
मुझपे  तोहमत  लगाए  हुए हैं 

हर सितम सह के  ज़िंदगी का 
गम   में  भी  मुस्कुराए  हुए हैं 

जो भी आता है उसके मुक़ाबिल 
उसको  क़द  से  गिराए  हुए   हैं 

उसकी चाहत में हम आज 'ज़ीनत'
अपना  सब  कुछ  लुटाए  हुए  हैं 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 8 July 2016

मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
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फिर उसी सम्त से इक बार सदा दे मुझको 
खुशबूओं से हो मोअत्तर वो हवा दे मुझको 

पास  रहने  दे  ख्यालों  को  ज़रा  पहलू में
या तो फिर जाने दे पहलू से उठा दे मुझको 

इक फटी सी हूँ मैं चादर तेरे क़ाबिल तो नहीं
गर  तरस आये तुझे यार  बिछा दे मुझको 

दिल में जो गर्द है नफरत की कोई बात बने 
सामने आती  हूँ जी भर  के सुना दे  मुझको

चूम  के  लब  के हरे  शाख़ को  मेरे हमदम  
शोख़ उल्फ़त की कोई रंग-ए-हीना दे मुझको 

आख़िरी लफ्ज़ ठहर जाए लब-ए-'ज़ीनत' पर 
मेहरबाँ  हो के तू  पत्थर  सा बना दे मुझको 
-----कमला सिंह 'ज़ीनत' 

Sunday, 26 June 2016

बस यूँ ही 
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हर दिन ,हर वक़्त 
हर पल ,हर सेकंड 
कोई न कोई खबर आती है 
मरने की  ... 
मैं भी तो हर रोज़ मरती हूँ 
एक नए ताने 
एक नए उलाहने 
एक नयी बात 
रूठने का डर 
और एक बिछड़ने के दर्द के साथ 
शब के पहलु में आने से लेकर 
सुब्ह की किरणों के चूमने तक भी 
मुसलसल एक ही फ़िक्र 
एक ही डर 
एक ही बात 
फिर एक नयी मौत 
फिर एक नयी मौत 
--- कमला सिंह 'ज़ीनत'

शतरंज की चाल
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ज़िंदगी शतरंज है
हम सभी चाल चल रहे हैं अपनी अपनी
सामने वाला हार जायेगा
यही हसरत पाले खेल रहे हैं सभी
हम ज्यादा सर्वश्रेष्ठ हैं यह भी गुमान है
तो ठहरो ज़रा एक बात बताएं तुम्हें
यह धरती बहुत बड़ी है
और लोग एक से बढकर एक
हम भी उन्हीं में से एक हैं
हां तो तुम
जब मोहरे उठाने की कोशिश करते हो
तुम्हारे हिलने
और मोहरे को छूने के
बीच की दूरी से पहले ही
हम तुम्हारी अगली चाल तय कर लेते हैं
तो चलो अब खेलो मेरे साथ
शह और मात का खेल
----कमला सिंह 'ज़ीनत '
मैं भी चेहरा पढती हूँ (कुछ ख़ास महानुभाओं के लिए)
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जैसे के ईश्वर ने सभी को पारखी नजर
और
एक दूसरे को पढ लेने का फ़न दिया है
यह कृपा
ईश्वर की
मुझ पर भी है
आपका अनुमान क्या है
मेरे बारे में
पता नही मुझे
पर
आप क्या हैं ?
मैं खूब जानती हूँ
क्योंकि
मैं भी चेहरा पढती हूँ
कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 24 June 2016

मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
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प्यासी हूँ बहुत प्यास है अब जाम दे साक़ी 
रिन्दों में  किसी  तौर से अब नाम दे साक़ी 

ठहरा  ही  नहीं  कोई  भी मयकश मेरे आगे
हर   ओर  मेरा   ज़िक्र  है  ईनाम  दे साक़ी 

यूँ  तो  मेरे  हिस्से में कई शब मिले बेहतर 
अब  ख़्वाहिशें  इतनी  है कोई शाम दे साक़ी

नज़रों  से  बनाऊँगी  मैं   पैमाने  को  शीरीं  
ला जाम इसी हाल में  कुछ  ख़ांम  दे साक़ी 

उजरत तो  हमेशा  लिए  जाता है तू सबसे 
रौनक ये हमीं  से  है तो अब दाम  दे साक़ी 

'ज़ीनत'  लिए  बैठी   है  सुराही  पे  सुराही 
 कब होगी मुकम्मल ज़रा इल्हाम  दे  साक़ी 
------कमला सिंह 'ज़ीनत' 

एक ग़ज़ल हाज़िर है आपके हवाले 
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लफ्ज़   सारे  अयाँ  हो  गए 
सारे   किस्से   बयाँ  हो गए 

वो   हमारा  हुआ   हु- ब- हु 
और  हम  कहकशाँ  हो  गए 

बात थी आपसी  कुछ मगर 
फासले   दरमियाँ   हो  गए 

रफ़्ता-  रफ़्ता   लगी चोट यूँ 
सिसकियाँ,सिसकियाँ हो गए 

हम सुलगते रहे रहे दर-ब-दर 
बा-ख़ुदा  तितलियाँ  हो  गए 

मौज  'ज़ीनत'  वो होता रहा 
और  हम  कश्तियाँ  हो  गए 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

एक ग़ज़ल हाज़िर है आपके हवाले 
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लफ्ज़   सारे  अयाँ  हो  गए 
सारे   किस्से   बयाँ  हो गए 

वो   हमारा  हुआ   हु- ब- हु 
और  हम  कहकशाँ  हो  गए 

बात थी आपसी  कुछ मगर 
फासले   दरमियाँ   हो  गए 

रफ़्ता-  रफ़्ता   लगी चोट यूँ 
सिसकियाँ,सिसकियाँ हो गए 

हम सुलगते रहे रहे दर-ब-दर 
बा-ख़ुदा  तितलियाँ  हो  गए 

मौज  'ज़ीनत'  वो होता रहा 
और  हम  कश्तियाँ  हो  गए 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 1 June 2016

बहुत ही उम्र हो लम्बी न ये बधाई दे
मेरे नसीब मुझे जि़द की वो मिठाई दे
ये शोख़ चूडि़यां पहना सकूं मैं बचपन को
जो हो सके तो मुझे मख़मली कलाई दे
कभी याद की मेरी बस्ती में भूले
अगर बचपने की वो नन्हीं सी गुडिया
मचलती,उछलती हुई पास आई
तो फिर दिल कडा़ करके ऐसे में उसको
हिरासत में लेकर बनाएंगे बंदी
निहारेंगे जी भर
बहुत प्यार देंगे
गले से लगाकर लिपट जायेंगे हम
कहां खो गई मेरी नन्हीं सी गुडिया
अरे वक्त़ तुमने ये क्या जु़ल्म ढाया
कहां थे कभी
अब कहां आ गये हम
क्या खुद
अपने बचपन को ही खा गये हम
समझ भी न पाए
समझ भी न आए
अजब दास्तां है
सुने न सुनाए
हमीं अपनी यादों में बैठे मुसलसल
बहुत याद आए
बहुत याद आए
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
दुल्हन सी गुडिया की चुटिया आज भी बैठे गूंध रही हूं
बचपन के मेले में जाकर फिरकी वाला ढूंढ रही हूं
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
हम तेरे शहर में आएंगे लिये बचपन को
क्या तेरे शहर में जि़न्दा हैं खिलौने वाले
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
aik matla aik sher
............................
करुं मैं कैसे भला ये निबाह बतलाए
उसी से पूछ रही हूं गुनाह बतलाए
हमारे पास नहीं मशविरा सलीके का
कोई हो रास्ता उम्दा तो आह बतलाए
----कमला सिंह 'ज़ीनत'
दिल दुखाते हुए जब दिल से मेरे तू निकले
आंख भर आए छलककर मेरे आंसू निकले
---कमला सिंह 'ज़ीनत'



एक मतला एक शेर
........................
दिल की दीवार से तस्वीर उतारा न करो
इस तरीके से गुनहगार को मारा न करो
दौड़ पड़ती हूं मैं कुछ हादसा हो सकता है
यूं अचानक मुझे बे-वक्त़ पुकारा न करो
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 26 May 2016

मेरी एक ग़ज़ल
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लहू उबाल दे अशआर की ज़रूरत है
अभी तो शायरे - दमदार की ज़रूरत है
हर एक सिम्त तमाशा है जश्ने मक़तल है
कलम की शक्ल में तलवार की ज़रूरत है
जो जम चुके हैं किनारों पे झाड़ियों कि तरह
उन्हें मिटाना है मझधार की ज़रूरत है
थकी हुई हैं जो क़ौमे रहम के क़ाबिल हैं
उन्हीं को साया- ए-अशजार की ज़रूरत है
हमारे सर पे फ़क़त आसमान काफी है
हमें न दोस्तों मेमार की ज़रूरत है
जो रख दूँ पाँव तो दरिया भी रास्ता दे दे
ऎ 'ज़ीनत' हमको न पतवार की ज़रूरत है
-------कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday, 14 May 2016

ख़ुशबू में बसा होगा गुलाबों में मिलेगा
आँखों में तलाशोगी तो ख़्वाबों में मिलेगा
'ज़ीनत' जो हज़ारों ही सवालात जगा दे
ढूँढोगी उसे जब भी जवाबों में मिलेगा
__________कमला सिंह 'ज़ीनत'
ऐसे सीने से मेरे खुदको गुज़ारे क़ातिल
जैसे गरदन से कोई चाकू उतारे का़तिल
चाँद का जि़क्र किया और ये आफ़त आई
हो गये सुनके उसी रात सितारे का़तिल
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 13 May 2016

मेरी एक ग़ज़ल 
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ना  दौलत  इम्लाक के बल  पर आई हूँ 
मैं  अपने अख्लाक़  के बल पर आई  हूँ 

आँधी  और  तूफ़ान से मेरा शिकवा क्या 
शम्मा  हूँ  मैं  ताक़ के  बल  पर  आई हूँ 

दुनियाँ  वाले  इज़्ज़त  मुझको  क्या देंगे 
नाम-ए-ख़ुदा अफलाक के बल पर आई हूँ 

गूंगे   हैं  एहसास  हमारे  पर  फिर  भी 
खुश  लहजा  बे-बाक के बल पर आई हूँ 

मिट्टी   हूँ   मैं  गूँथ  रही  हूँ  'ज़ीनत' को 
हिस्से-हिस्से  चाक के  बल  पर आई हूँ 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 11 May 2016

आज मैं मौन हूँ जानते हो क्यूँ ? शब्दों ने मुझे खुद निशब्द कर दिया है गूंगी बन कर भटक रही हूँ मैं अल्फ़ाज़ों के शहर में ---कमला सिंह 'ज़ीनत'

Sunday, 1 May 2016

मेरी  एक और ग़ज़ल हाज़िर है 
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मेरे  मुँह  पर  ताला है 
इक मकड़ी का जाला है 

हाथ में मेरी मेहनत का 
रोशन एक  निवाला   है 

बिल्कुल थे खुद्दार बहुत 
जिन  हाथों  ने पाला  है 

सादेपन  ने  मुझको  ही 
हर  मुश्किल  में डाला है 

मैंने  अक्सर  देखा    है 
चाँद  के  रुख़ पे काला है 

नीम  अँधेरा  'ज़ीनत' में 
पर  हर सिम्त उजाला है 
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 29 April 2016

प्यास से वो मर रहा था काम इतना कर गया
उँगलियों पे आँसू लेकर पानी लिक्खा मर गया
---कमला सिंह 'ज़ीनत'
सूरज की सरगर्मी है
काफी ज़्यादा गर्मी है
फिर भी काट रहे हैं जंगल
कैसी ये बेशर्मी है
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Friday, 22 April 2016

अपने हिस्से का जब खु़दा देखा
ख़त्म होता सा फासला देखा
सर झुका और हाथ उठते ही
हर तरफ़ बस खु़दा खु़दा देखा
ज़िंदगी
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ज़िंदगी हादसों से गुज़री है
हादसातों का सिलसिला हूँ मैं
है जीगर किसका जो सुन ले मुझको
गाँठ खुलते ही सुलग जाते हैं लोग
इसलिए चुप है लबों पर जारी
कैसे कह दूँ खुली किताब हूँ मैं
ऐसी चादर है पिछली यादों की
रोज़ ब रोज़ रंग छोड़ती है
ताना पड़ते ही दरक जाती है
और सम्भाले नहीं सम्भलती है
बाद इस तार तार चादर के
इक नई और आई है चादर
जिसको ओढे हुए सुकून की नींद
सोती रहती हूँ मुख्ख्तसर ये है
बाद किस्सा ब्यान कल होगा
चादरों का यहाँ भरोसा क्या
वक्त़ के साथ रंग छोड़ती हैं
वक्त़ के साथ दरक जाती हैं
जाने कब तक ये सिलसिला हो नसीब
आह ये ज़िंदगी तमाशा करे
लज्ज्जतों का हमें बताशा करे
एक मुफ्लिस सी ज़िंदगी ज़ीनत
हाथ फैलाए ही गुज़ारा करे
जाने अब कौन है जो सुन लेगा
अब किसे बोल तू पुकारा करे
ये जुआ खेलना ज़रुरी भी है
और हर रोज़ खुदको हारा करे
दिल के आँगन में दाग़दार सही
रोज़ उस चाँद को उतारा करे
जो मुकद्दर में आज आया है
ज़िंदगी भर ख़ुदा हमारा करे।
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Wednesday, 13 April 2016

कभी हँसाता है मुझको कभी रुलाता है
वो इस तरीके से आकर मुझे सताता है
कहाँ तलक मैं ख़्यालात को ज़ंजीर करुँ
जकड़ के बैठूँ मगर फिर भी याद आता है
बिठा के रोज़ मुझे अपने दिल के मक़तब में
वो अपने प्यार का कलमा मुझे पढा़ता है
मैं उससे रुठूँ तो बेचैन होने लगता है
मनाने बैठूँ तो अक्सर वो रुठ जाता है
न जाने कैसी है आदत ख़राब ये उसकी
हमारी आँखों से वो नींद ही उडा़ता है
उचट ही जाती हैं नींदें हमारी रातों को
वो आस - पास नए गीत गुनगुनाता है
कभी मैं पूछूँगी उसके करीब ये जाकर
वो छोड़कर मुझे क्या अपने घर भी जाता है
किसे बसायेगा "जी़नत" वहाँ ख़बर तो लें
सुनहली रेत पे वो किसका घर बनाता है

Tuesday, 5 April 2016

पुस्तक से एक और ग़ज़ल
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सहन अपना बाँट दीजिये
तल्ख़ियों को पाट दीजिये
दूसरों को भी मिले सबक़
इक नया प्लॉट दीजिये
लिख के पूरी अपनी ज़िंदगी
डॉट - डॉट - डॉट दीजिये
दौर अब नहीं रहा जनाब
भाईयों को डाँट दीजिये
उठ गए जो आपकी तरफ़
उँगलियों को काट दीजिये
ज़िंदगी है फ़िल्म ये ज़ीनत
इक हसीन शॉट दीजिये
----------कमला सिंह 'ज़ीनत'
हम जो इंसान अगर हैं तो निशानी रख दें
आओ प्यासे हैं परिंदे ज़रा पानी रख दें
जि़न्दा हैं इंसान अभी भी चिडि़यों को बतलायें हम
दाना - पानी अपने छत पर रखना भूल न जायें हम
न तो ईसाई हैं ,हिन्दू न ,मुसलमान हैं ये
ये तो बस प्यासे परिंदे हैं परिशान हैं ये

Thursday, 31 March 2016

कोशिशें की चमक नहीं पाया
खोटा सिक्का खनक नहीं पाया
सब्र के साथ चोट खाती रही
दिल का शीशा दरक नहीं पाया
अभी तक हम उसी के ज़ुल्म की चक्की में पिसते हैं
जहाँ पर हाथ रखती हूँ वहीं से ज़ख्म रिस्ते हैं

Wednesday, 30 March 2016

दस्तक देना लेकिन थोडा़ होले से
दरवाजे़ के हर हिस्से में टूटन है
अकेलेपन के वीराने में हूँ खा़मोश मजा़र
गुलों के टूटे सितारों का खू़ब जमघट है
हर लम्हा ख़ामोश गुज़रना चुप जाना
धीरे - धीरे अपने अन्दर छुप जाना

Monday, 28 March 2016

क शेर
मत पूछ मुझसे कितने मराहिल हैं प्यार के
सबका जवाब रख दिया गरदन उतार के
एक शेर
लौटे अभी अभी हैं ये सदियाँ गुजा़र के
मर्जी़ से ही उडे़ंगे कबुतर हैं प्यार के

Tuesday, 22 March 2016

एक कप चाय पे चुग़लखोरी
दोस्तों की हंसी उडा़ते हैं
वक्त़ करता है उनको बेइज़्ज़त
गुमशुदा हो के मारे जाते हैं
जाने किस ओर से डंस ले कम्बख़्त
दो मुँहे साँप से डर लगता है
स्वार्थ में खुदको भी अब अंधा बना लेते हैं लोग
दोस्ताने को भी इक धंधा बना लेते हैं लोग
इधर उधर की करके चुगली खुदको बडा़ बनाता है
अपने पन का ढो़ग रचा कर औंधे मुँह गिर जाता है
कमला सिंह 'ज़ीनत'
जो अपने पन का तमाशा दिखाते रहते हैं
वही तो लोग "मुखौटा" लगाते रहते हैं

Saturday, 12 March 2016

उफ़्फ़
जब कोई हादसा बे- वक्त़ गुज़र जाता है
बिन कहे आँखों में भी खू़न उतर आता है
कमला सिंह 'ज़ीनत'
एक मतला दो शेर
जिंदगी कब तलक नश्तर रक्खे
कुछ तो मेरे लिये बेहतर रक्खे
जी रही हूँ किसी तरह से मैं
रोज़ कांधे तले बिस्तर रक्खे
ज़ख़्म ही ज़ख़्म से भरी हूँ अभी
जिस्म पे ज़ख़्म के जे़वर रक्खे
तिनका तिनका बटोरती हूँ जब
सुख की चादर को ओढ़ती हूँ जब
तिनका तिनका बिखेर देता है वक्त़
पूरी चादर उधेड़ देता है वक्त़
जब्र के सारे तू दरवाजे तो खोल
ऐ खुदा कितना जुल्म बाकी है बोल
--कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 18 February 2016

रुत हुए सुहाने देखिए , अब गुलों की बात कीजिए 
खुश्बूओं में हो बसर सहर,खुश्बूओं में रात कीजिए
------कमला सिंह "ज़ीनत "



एक शेर
इस तरह हादसे कुछ मेरे सहारे उतरे
जैसे प्यासा कोई दरिया के किनारे उतरे

एक शेर
खुशबू में बसा होगा गुलाबों में मिलेगा
आँखों में तलाशोगे तो ख़्वाबों में मिलेगा

Sunday, 14 February 2016

मेरी नयी पुस्तक जिसका विमोचन ७ फ़रवरी को हुआ उस पुस्तक की एक ग़ज़ल हाज़िर करती हूँ 
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ज़िंदगी अपनी गुज़ारी  है सुख़नवर की तरह 
खुद को रखती हूँ करीने  से मैं ज़ेवर की तरह 

जब कोई  शख़्स  कभी मुझसे  बद-कलाम करे 
मैं मुख़ातिब  तभी हो जाती हूँ तेवर की तरह 

हम  इसी   भीड़  में  चलते हैं  मगर  होश लिए 
कौन मिल जाए कभी मुझसे भी अजगर की तरह 

उससे  मिलने की  बराबर मुझे  होती  है तलब 
मुझसे  मिलता है मेरा अपना भी दिलवर की तरह

जब जब भी  सुकूँ  चाहिए होता  है मुझे ऐसे में 
मैं  बिछा  देती हूँ  उस प्यार को चादर की तरह 

ये  है  'ज़ीनत' का  अलग रंग ज़माना सुन ले 
पास आये ना कोई बनके यूँ नश्तर की तरह 
-----------कमला सिंह 'ज़ीनत'


Sunday, 24 January 2016

जो भी फुटपाथ के किनारे हैं
वे फ़क़त मुफ़्लिसी के मारे हैं
मर ही जाते गरीब ठंडक से
जी रहे आग के सहारे हैं
-----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Saturday, 23 January 2016

हैं गुरबत के मारे चुभन तापते हैं
लगाकर कलेजे से मन तापते हैं
कुहासे में फुटपाथ पर बैठे बैठे
वे तन को तपाकर बदन तापते हैं
----कमला सिंह 'ज़ीनत'

Thursday, 21 January 2016

हर एक ख़्वाब को आँखों में मार बैठे हैं
ख़्याल- ए- यार का चश्मा उतार बैठे हैं
कभी लगाया था सीने में इश्क़ का पौधा
हम अपने हाथों से उसको उजाड़ बैठे हैं
_____कमला सिंह 'ज़ीनत'

Tuesday, 19 January 2016

फन रखिये फनकार भी रहिये
मुश्किल में तलवार भी रहिये
जोगन बनना खूब है लेकिन
पायल की झनकार भी रहिये
खुद से भी गर मिलना हो तो
आपस में दीवार भी रहिये
लोगों से मिलना हो जब भी
लहजे से तहदार भी रहिये
मेहनत करना ठीक है लेकिन
कुछ लम्हे बेकार भी रहिये
परखना जब भी था अपने बिसात पर परखा
उन पत्थरों को भी शीशे के हाथ पर परखा
आह शबनम से भी फूलों का जीगर जलता है
उफ दुआओं से फरिश्तों का भी पर जलता है
पत्थर को जांचने का तरीका बना लिया
खुदको इसी ख्याल से शीशा बना लिया

Sunday, 17 January 2016

एक मतला एक शेर
जब भी यादों के उस वतन में रही
एक खुशबू लिये बदन में रही
वो सितारे सा जगमगाता रहा
मैं ख़्यालों के अंजुमन में रही

Saturday, 16 January 2016

एक मतला दो शेर
बात ही बात पे गुस्सा न किया करना तुम
लहजा शींरीं रहे तीता न किया करना तुम
लफ़्ज़ फा़हे की तरह रखना जहाँ भी रखना
गुफ़्तगू को कभी शीशा न किया करना तुम
खु़दको ढाला करो तुम की़मती टकसालों में
जि़ंन्दगी को मगर पैसा न किया करना तुम
एक मतला एक शेर
मुझसे क्यों पूछते हो क्या है वो
मेरी नस - नस में चल रहा है वो
कह दो काफि़र कबूल है मुझको
कह दिया न मेरा खु़दा है वो