Monday 14 July 2014

एक और ग़ज़ल हाज़िर है दोस्तों 
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जहाँ जाऊँ तेरी परछाईयाँ हैं 
कहूँ कैसे भला तन्हाईयाँ हैं 

ग़मों की धुप कब की जा चुकी 
मोसर्रत से भरी शहनाईयां हैं 

है सब्ज़ा दिल की बस्ती आज मेरी 
मेहरबां  हो चुकी पुरवाईयाँ हैं 

बहुत रौनक है घर में या खुदारा 
ख़ुशी में झूमती अँगनाईयाँ हैं 

ना जाने क्या हुआ है क्यों हुआ है 
हमीं को तोड़ती अंगड़ाईयाँ हैं 

उसे सोचूं न पल-पल मैं 'ज़ीनत' 
हमारी भी तो ये रुसवाईयाँ हैं 
---कमला सिंह 'ज़ीनत'

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