या सूरज निकलेगा
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रोज़ ब रोज़
बगै़र रुके
बढ रहा है मेरे वजूद का साया उस ओर
यह जानते हुए भी
दुनिया गोल है और लोट आना है फिर
साया जनूनी है मेरा
तलाश की लम्बी राह
वहाँ कुछ तो होगा
तमन्नाओं की गेसुओं को सुलझाता
बढ रहा है रोज़ ब रोज़
मेरे जैसा ही मेरा साया
मंजि़ल ए मकसूद को नज़र में समेटे
थकान के शामियाने तानते हुए
ठहराव का कोई सिरा नहीं दिखता
जहाँ से दुनिया अपनी गोलाई समेटेगी
कहा है उसके कानों में किसी ने अभी
नया सूरज निकलेगा
बेतरतीब साया बढ रहा है रोज़ ब रोज़
दास्तान ए किस्सा गो की कहानी बने
हसरत का एहसासी टोकरा उठाए
बे निशाँ सफर की ओर
साथ मैं भी हूँ
खामोश ,चुपचाप
बिल्कुल चुपचाप
कमला सिंह 'ज़ीनत'
बहुत गहन और ख़ूबसूरत प्रस्तुति...
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10-07-2014 को चर्चा मंच पर उम्मीदें और असलियत { चर्चा - 1670 } में दिया गया है
ReplyDeleteआभार
ji abhar
Deleteकभी न कभी अपनी भी सुबह जरूर होती है
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
अच्छा लगा आपका ब्लॉग पढ़कर और ब्लॉग पर आकर
behad shukriya Kavita ji
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeletethanku Pratibhaji
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति!
ReplyDeletebehad shukriya aapko
Deleteउमीदों में आग लगी हो तो,
ReplyDeleteसूरज दिल में बनता है...........गर्मी इतनी ज्यादा है की सूरज न निकलने में ही फायदा है.
वाह !! एक अलग अंदाज़ कि रचना ......बहुत खूब
ReplyDeletebehad shukriya
Deleteबेहतरीन रचना..
ReplyDeletebahut aabhar
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