Wednesday, 23 April 2014

एक ख्याल 
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मैं हूँ तुम्हारी अमृता 
एक वो थी अमृता 
और 
एक मैं हूँ ,तुम्हारी अमृता 
इसी नाम से बुलाते हो न मुझे 
हर शेर में तुम्हारे 
झलकता है अक्स मेरा 
तुम्हारे होठों पे बनके तब्बसुम 
मचलती हूँ मैं 
हर रोज़ मेरे लिए 
एक फ़िक्र बुनते हो 
तुम्हारे इस शायरी और ग़ज़लों की 
कैनवास में 
मेरा रंगरूप बनाते हो तुम 
तुम्हारे खींची हुई लकीरों में 
मैं ही मैं दिखती हूँ 
भोर की सुब्ह 
से शब के आगोश तलक 
हर वक़्त मैं साथ होती हूँ 
तुम्हारी जीवन रेखा बन चुकी हूँ मैं 
विधाता ने तक़दीर की लकीरों में 
तुम्हारी अमृता को बनाया और 
तुमने शेर के हर श्रृंगार से 
सजा कर मुझे 
एक साधना बना डाला 
और खुद को साधक ………। 
तुम्हारे अलिफ़ से लेकर 
हमज़ा तक के सफर में 
सिर्फ मेरा ज़िक्र होता है 
एहसास दिलाता है की 
तुम्हारे गोशे गोशे में ,
तुम्हारी रगों में ,
तुम्हारे जिस्म के क़तरे क़तरे में ,
तुम्हारी अमृता बसती  है 
बेहद पाकीज़ा प्यार है तुम्हारा 
रूहानियत से  इश्क़ .......  
जैसे खुदा से किया हो 
मैं भी आज इस बात का  
इक़रार करती हूँ   …… 
मैंने भी तुम्हे अपना इमरोज़ ही माना है 
दूर ही सही लेकिन हमेशा 
साथ चलते हो मेरे 
एक छन भी अलग नहीं होती तुमसे 
साये की तरह साथ चलते हो मेरे 
हर बार आउंगी मैं 
किसी न किसी रूप में बनकर 
तुम्हारी 'अमृता '
हर  जीवन में।  
तुम्हारी 'अमृता बनना 
मेरे लिए फ़क्र की बात है और 
एक इतिहास भी बनेगा 
मेरे इमरोज़ हो तुम 
…और .... 
मैं तुम्हारी अमृता  
--कमला सिंह 'ज़ीनत'


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