-----------जिंदगी ------------
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जिंदगी मेरी क्या है यूँ समझो
इक कटी सी पतंग हो जैसे
एक गुमराह सा मुसाफिर हो
एक भटका हुआ सा बच्चा हो
एक सुखा हुआ सा दरिया हो
एक ठहरी हुई नदी हो कोई
एक प्यासी हुई सी मछली हो
एक रांझा हो और हीर ना हो
एक बादल हो और बरसे न
एक कश्ती हो और टूटी हो
इक समंदर हो और पानी ना हो
इक पहाड़ी हो और बंजर हो
एक साधू हो और साध ना हो
एक तितली हो और उड़ न सके
एक बुलबुल हो और गा न सके
एक भंवरा हो फूल को तरसे
एक अंधा हो आँख को ललचे
एक पागल हो होश पाए नहीं
एक शायर ग़ज़ल ना कह पाए
एक बिजली हो और कड़क न सके
कोई रूपया हो और चल न सके
इक शजर हो मगर समर ना हो
ज़हर हो जिंदगी बसर ना हो
वक़्त की सिर्फ मारामारी है
अश्क आँखों से मेरे जारी है
और जाने की भी तैयारी है
इस तरह जिंदगी गुजारी है
इस तरह जिंदगी गुजारी है
-------------कमला सिंह ज़ीनत
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