--------मिलन की चाह------------
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उस से मिलने की चाह लेकर मैं
सज के निकली संवर के निकली हूँ
रास्ते पावॊ में लपेटे हुए
उसकी यादों के बीच जंगल से
एक नागन सी मस्त होती हुई
खूब लहराती
झूमती गाती
अपने होठों पे रख के सुर्ख गुलाब
जेब-ए-तन कर लिया है सुर्खी को
उसकी खुशबू बसाए बालों में
सुरमई शाम लिए आँखों में
उससे मिलने की चाह में देखो
आज दीवानावार जाती हूँ
दौड़ता फिरता है लहू सा वो
मेरी रग-रग में वो समाया है
ज़ेहन में इतर सा वो महका है
दूर बाहें पसारे कब से वो
दर्द के गीत गाये जाता है
होश मेरा गंवाए जाता है
मेरा सुध-बुध भुलाए जाता है
मेरे तन मन पे छा गया है वो
एक वहशी है
भा गया है वो
हर तरफ आशिकी का घेरा है
उसको बस इंतज़ार मेरा है
--------------------कमला सिंह ज़ीनत
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