लफ्ज़ गुम हो गए कही पे
शायद जम गए यही पे
ना रंग है ना रूप कोई
शायद छुप गए कही पे
फिरती हूँ इधर-उधर
मिल नहीं रहे कही पे
जाऊ तो जाऊ कहाँ ढूंढने
अब तो आ जाओ यही पे
बिन तुम्हारे सब सूना है
जिंदगी टिकी है तुम्ही पे
ज़ीनत को भी ए दोस्त
रश्क है खुद पे
ज़ीनत को भी ए दोस्त
रश्क है खुद पे
----------------कमला सिंह 'ज़ीनत '
No comments:
Post a Comment