Wednesday, 19 February 2014

मेरे ग़मखाने में रहता है जो सूफी की तरह
उसको दुनिया मेरा महबूब कहा करती है 

कमला सिंह 'ज़ीनत'

दर्द लिखने का सिला यूँ मिला मुझको जीनत
फूल लिखती हूँ तो उग आते हैं काँटे काँटे

कमला सिंह 'ज़ीनत'

खुली हवाओं में सांस लेती हूँ परों को फैलाकर 
जहाँ दम घुटे वहाँ परवाज़ नहीं करती मैं 
--------'ज़ीनत '

जिसको बनाना अपना था वह बात कल तलक
जो आज है नसीब से मुझतक तमाम है

कमला सिंह 'ज़ीनत'

तेरे दर्दे दिल के हर ज़ख्म कि दवा हूँ मैं 
मयस्सर हुआ जो दर्द उसकी दुआ हूँ मैं 
------कमला सिंह 'ज़ीनत'

No comments:

Post a Comment