-------ग़ज़ल------------
--------------------------
बिजलियों से क्या शिकवा तीलियों से क्या शिकवा
ख़ाक ही मुकद्दर है आँधियों से क्या शिकवा
घर का मेरा गुलदस्ता फूल को तरसता है
फूल भी नहीं हासिल तितलियों से क्या शिकवा
ज़हर ज़हर फैला है हर तरफ हवाओं में
इस तरह की सूरत में खिड़कियों से क्या शिकवा
बदनसीबी लिखी है ज़िंदगी के माथे पर
क्यूँ नहीं खनकती हैं ,चूड़ियों से क्या शिकवा
दिल के कोने कोने से चीख़ उठती रहती है
रोज़ का ये आलम है सिसकियों से क्या शिकवा
हसरतों की चिड़ियों का खून हो चुका ज़ीनत
जो जिगर में चुभते हैं किरचियों से क्या शिकवा
---------------------कमला सिंह ज़ीनत
No comments:
Post a Comment