Sunday, 23 February 2014

गुमशुदा मुझमें
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गुमशुदा कोई तो बैठा है 
मेरी रग रग में 
कोई फिरता है सुबह शाम
लहू के अन्दर
एक तूफान सा उठता है
तबाही बन कर
दिल की धड़कन को बढा देता है
कातिल मेरा
मेरी चाहत में टहलता है वो
दिवाना सा
मुझ पे छा जाता है हर वक्त वो
बादल बनकर
मुझको यादों में लिये फिरता है
बंजारे सा
रुह पर मेरी मुसल्लत है वो
फरिशते सा
बस उसे सोचते रहने के सिवा
कुछ भी नहीं
मेरी दिन रात की पूजा है
इबादत है वह
मुझको जिस हाल में रक्खे
मेरी कुदरत है वो
वह ज़माने से गुज़रता है
अमीरों की तरह
गुमशुदा मुझमें वह रहता है
फकीरों की तरह
...कमला सिंह 'ज़ीनत'

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