एक नज़म
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तुम किधर चले जाते हो ?
यूँ तन्हां छोड़कर
मेरे महबूब ,मेरे हमसफ़र
मेरे पास आओ
बैठो न ,
कुछ बातें करो ,कुछ बोलो भी
कितनी बेचैन सी रात है
साँसों के लरजने कि आवाज़ है
लेकिन कितना सुकून है....
इस मौत सी सन्नाटे में भी
मद्धम मद्धम आ रही है आवाज़ें
पर तुम ना जाने कहाँ खो जाते हो ....
इस सियह रात में ,
एक इंतज़ार को छोड़कर मेरे पास
क्यूँ करूँ इससे दोस्ती ?
ये भी तो तुम्हारी ही बातें करती हैं
हर वक़्त लिपटी रहती हैं मुझसे
देखो इस चांदनी रात को
कितना प्यारा है
खुश है अपनी चांदनी के साथ
मेरे भी कुछ अरमां हैं
कुछ हसरत हैं
संग तुम्हारे जीने की
वो पल जो अनमोल हों
वो पल जो नायाब हों
ज़िंदगी बिताने के लिए
ऐसी व्यथा देते ही क्यूँ हो ?
देखो तुम्हारे दिए ख्वाबों को
सितारों सी लिपटी दमक रही हूँ मैं
बताओ कैसी लग रही हूँ मैं ?
आओ न हमराह चलें। …
जब तक घड़ी और रात चले
मासूम सी हसरतें हैं
तुम्हारे हाथों सजने की
आशियाने में बसने की
मुंतज़िर हूँ अब तक
आओ ना महबूब मेरे
क्यूँ चले जाते हो
क्यूँ चले जाते हो
यूँ तन्हां छोड़कर .......... .
…कमला सिंह 'ज़ीनत'
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