Thursday, 25 June 2015

मेरी एक ग़ज़ल आप सबके हवाले 
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 आग हरसू   लगाए फिरते हो 
बादलों  को   डराए   फिरते हो 

कौन जाने की, कब खुदा बदले
आजकल  बुत उठाए फिरते हो 

कितने मासूम खा गए धोका 
ऐसी  सूरत  बनाए  फिरते  हो 

अंधे  बहरों  के बीच  ऐ   साधू 
कौन सा धुन सुनाए फिरते हो 

अपनी मुट्ठी में आँधियाँ लेकर 
रौशनी  को बुझाए  फिरते  हो 

'ज़ीनत' तो पर्दा कर गयी कब की 
लाश  किसकी  उठाए फिरते हो
---कमला सिंह 'ज़ीनत' 
 

2 comments:

  1. कौन जाने की, कब खुदा बदले
    आजकल बुत उठाए फिरते हो

    सुन्दर

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