खरीददार तो बहुत थे जिंदगी के,
बोली भी लगायी मैंने" अपनी"
कोई शक्स ऐसा ना आया बढकर,
खरीद लेता जो अपनी मुस्कराहट देकर।
रुतबा एक से बढकर एक था उनका
औकात और ईमान भी पैसा था ,
समझा ना किसी ने ज़ज्बात की कीमत,
परेशां रहे सभी,उनकी थी"अपनी"ही जद्दोजहद ।
देखती रही खरीदार मैं अपनी,
भाया न कोई दिल को मेरे,
दौलत वाले थे लाखों वहाँ पर,
ना था दिल का मालिक उनमें।
कोई शख्स ऐसा न आया बढकर,
खरीद लेता जो मुझे अपनी मुस्कराहट देकर।।
...............................कमला सिंह
बेहतरीन..!!
ReplyDeleteकमाल कर दिया कमला जी....!
you & your Poetry both are Amazing......!
बहुत बहुत शुक्रिया सुखपाल जी
ReplyDeleteनहीं आया वो खरीदार,
ReplyDeleteमुझे था जिसका इंतज़ार.
क्या कहने, सुंदर
bahut bahut abhari Virendra Sinha sahab
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