एक अमृता और
___________
सुनो इमरोज़।
कई ख़्याल
मेरे दिलो दिमाग़ में चलते फिरते रहते हैं
सोचा कि तुम्हें आज कह सुनाऊँ
सुनो न .......
इस बदरंग सी ज़िंदगी में तुमने
अपनी शायरी की कूची से
सारे रंग भर दिए
किसमें ??
हा ..हा ..हा
अजीब हो तुम भी न
मुझमें न और किसमें
मैं अपनी और तुम्हारी बात कर रही हूँ
हाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ आपनी बात
मैं वो नहीं कि मेरा नाम
सबकी सदाओं की मेहराब बने
मैं वो सुर्खी भी नहीं
जो माथे-माथे चन्दन बनी फिरे
सही कहा न मैंने ।
उफ़्फ़
तुम तो रूठ ही गए
मरे नसीब , मेरे हबीब
तुमने तो मेरे जीवन को
या यूँ कहूँ कि एक तपते हुए सहरा को
ठंडी हवाओं के झोंकों से
तर कर दिया है
खुश्क काँटों को सींच सींच कर
अमृत बेल बना दिया है
तुमने हाँ तुमने
हर शब एक नयी हयात बख़्शी है
सुनो ....
एक बात कहूँ ?
तुमने कोई गलती तो नहीं की न
एक पत्थर को तराश कर ?
अपने मन के मंदिर की देवी बना लिया तुमने मुझे
तराशने,निखा़रने और सजाने में
तुमने अपना क़तरा क़तरा झोंक दिया उफ़्फ़
आज ज़ेहन में इस बात की हलचल हुई
और ज़बान तक ये आ गयी
इसीलिए कहा
नाराज़ नहीं हो न ?
होना भी मत ।
किससे कहूँ ,किससे बोलूँ सिवा तुम्हारे
कौन है मेरा जो मुझे तुम्हारी तरह सुने?
ये तस्वीर देख रहे हो ?
गौ़र से देखो इस वीराने को
यहाँ एक मायूस सी रूह का बसेरा था
बेदम बेजान रुह का
लेकिन तुमने तो चुपके से दस्तक देकर
इस वीराने को आबाद कर दिया
गुलजा़र कर दिया
इक हलचल सी मचा दी तुमने
उफ़्फ़
लाओ अब सिगरेट सुलगाओ
हर एक कश के साथ खींच लूँ
तुम्हारे हर एक एहसास को अपने अंदर
चुप क्यों हो ?
कुछ बोलो न
अच्छा देखो
धुँए से बनते हुए इस छल्ले को देखो
ऐसी ही है हमारी ज़िंदगी
एक दिन मैं भी लुप्त हो जाउँगी
इस धुँए की तरह
हमेशा हमेशा के लिए मेरे इमरोज़ ।
चलो अब कुछ तुम कहो
कुछ तुम सुनाओ
बोलो न इमरोज़ ।
--कमला सिंह 'ज़ीनत'
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सुनो इमरोज़।
कई ख़्याल
मेरे दिलो दिमाग़ में चलते फिरते रहते हैं
सोचा कि तुम्हें आज कह सुनाऊँ
सुनो न .......
इस बदरंग सी ज़िंदगी में तुमने
अपनी शायरी की कूची से
सारे रंग भर दिए
किसमें ??
हा ..हा ..हा
अजीब हो तुम भी न
मुझमें न और किसमें
मैं अपनी और तुम्हारी बात कर रही हूँ
हाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ आपनी बात
मैं वो नहीं कि मेरा नाम
सबकी सदाओं की मेहराब बने
मैं वो सुर्खी भी नहीं
जो माथे-माथे चन्दन बनी फिरे
सही कहा न मैंने ।
उफ़्फ़
तुम तो रूठ ही गए
मरे नसीब , मेरे हबीब
तुमने तो मेरे जीवन को
या यूँ कहूँ कि एक तपते हुए सहरा को
ठंडी हवाओं के झोंकों से
तर कर दिया है
खुश्क काँटों को सींच सींच कर
अमृत बेल बना दिया है
तुमने हाँ तुमने
हर शब एक नयी हयात बख़्शी है
सुनो ....
एक बात कहूँ ?
तुमने कोई गलती तो नहीं की न
एक पत्थर को तराश कर ?
अपने मन के मंदिर की देवी बना लिया तुमने मुझे
तराशने,निखा़रने और सजाने में
तुमने अपना क़तरा क़तरा झोंक दिया उफ़्फ़
आज ज़ेहन में इस बात की हलचल हुई
और ज़बान तक ये आ गयी
इसीलिए कहा
नाराज़ नहीं हो न ?
होना भी मत ।
किससे कहूँ ,किससे बोलूँ सिवा तुम्हारे
कौन है मेरा जो मुझे तुम्हारी तरह सुने?
ये तस्वीर देख रहे हो ?
गौ़र से देखो इस वीराने को
यहाँ एक मायूस सी रूह का बसेरा था
बेदम बेजान रुह का
लेकिन तुमने तो चुपके से दस्तक देकर
इस वीराने को आबाद कर दिया
गुलजा़र कर दिया
इक हलचल सी मचा दी तुमने
उफ़्फ़
लाओ अब सिगरेट सुलगाओ
हर एक कश के साथ खींच लूँ
तुम्हारे हर एक एहसास को अपने अंदर
चुप क्यों हो ?
कुछ बोलो न
अच्छा देखो
धुँए से बनते हुए इस छल्ले को देखो
ऐसी ही है हमारी ज़िंदगी
एक दिन मैं भी लुप्त हो जाउँगी
इस धुँए की तरह
हमेशा हमेशा के लिए मेरे इमरोज़ ।
चलो अब कुछ तुम कहो
कुछ तुम सुनाओ
बोलो न इमरोज़ ।
--कमला सिंह 'ज़ीनत'
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