Thursday, 21 August 2014

सुन रहे हो इमरोज़ _____________ तुम बस तुम हो मेरी क़लम में मेरे एहसास में मेरी जुस्तजू में मेरी आरजू़ में मेरे एक एक शब्द में मेरी एक एक पंक्ति में मेरी इबादत में मेरे सजदे में मेरी हुनर के गोशे गोशे में हर कहानी में बस तुम हो मेरे हर ब्यान में जि़क्र है तुम्हारा मेरे नाम के साथ ही या कहो तुम्हारे नाम के साथ साथ हमारा और तुम्हारा इक अटूट बंधन है न मिटने वाली एबारत है न ख़त्म होने वाली कहानी है इक सिलसिला सा है हम में इक सिलसिला सा है तुम में जनूनी हूँ मैं थोडी़ जि़द्दी भी लेकिन तुम्हारे लिये केवल सुलझी ,सौम्य ,शांत 'अमृता ' कल की कहानी अभी अधूरी है लिखूँगी क्या नाम दूँ सोचा नहीं है अभी कहाँ अन्त करुँ तय नहीं किया है सुन रहे हो न 'इमरोज़' सो गये क्या ? तुम्हारी 'अमृता 'तुमसे ही मुखा़तिब है । कमला सिंह 'ज़ीनत'
Chat Conversation End

6 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (22.08.2014) को "जीवन की सच्चाई " (चर्चा अंक-1713)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  2. सुंदर भाव-पूर्ण रचना.

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  3. बेहद उम्दा प्रस्तुति |

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